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जनवरी, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पर्वत जड़ नही होते हैं

पर्वत जड़ नहीं होते हैं  उसने सिखाई है आसमान को पानी की भाषा   वे नदी का माथा चूमकर  भेजते हैं उसे समंदर के पास  एक पिता की माफत पर्वत जड़ नहीं होते हैं  उसने सिखाई है मनुष्य के  आंखों की पुतलियों को  उंचाईयों की परिभाषा पर्वत जड़ नहीं होते हैं  उसने टहनियों पर बजाई है  हवा के साथ मिलकर धून और सुनाई हैं जंगलों को लोरियां  पर्वत जड़ नहीं होते हैं इस सृष्टि में सबसे जड़ है तो मनुष्य का ह्रदय

एक कविता पर सच

तुम नहीं भूलते हो जरूरी और कीमतीं चीजों को ना ही तुम रखते हो उन्हें इधर-उधर पर अक्सर तुम गैरजरूरी चीजों को या फिर जिसमें न हो कोई लाभ उन्हें फेंक देते हो इधर उधर या फिर सालों पड़ी रहती हैं वो चीजें धूल के परतों के भीतर चाहे  सामान हो या कोई इंसान पर तमाम भूली हुई चीजें, रिश्ते तुम्हारी तरफ देखते रहती हैं तुम्हारी हर हरकत पर उनकी होती है नजर इस जहांन में सबसे ज्यादा वही चीजें या रिश्ते तुम्हें याद करती हैं जिन्हें तुमने बहुत कम कीमती या फिर गैरजरूरी समझा हो और एक दिन समय के पहले ही कुछ रिश्ते, चीजें अलविदा कह जाते हैं

एक अंश

उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारे ह्रदय के गर्भ गृह में हो जाता है प्रेम से दाखिल  और तुम बसा लेती हो एकनिष्ठ एक ईश्वर की प्रतिमा  जिस दिन  तुम हठ करती हो एक कतरा उजाले की वो छीन लेता है  तुम्हारी आँखों की पुतलियाँ। (एक अंश)

जब वह औरत मरी थी

जब वह औरत मरी तो रोने वाले ना के बराबर थे  जो थे वे बहुत दूर थे  खामोशी से श्मशान पर  आग जली और  रात की नीरवता में  अंधियारे से बतयाती बुझ गई  कमरे में झांकने से मिल गई थी कुछ सुखी कलियां  जो फूल होने से बचाई गई थी  जैसे बसंत को रोक रही थी वो कुछ डायरियों के पन्नों पर नदी सूखी गई थी  तो कहीं पर यातनाओं का वह पहाड़ था जहां उसके समस्त जीवन के पीडा़वों के वो पत्थर थे जिसे ढोते ढो़ते- ढ़ोते उसकी पीठ रक्त उकेर गई थी कुछ पुराने खत जिस पर  नमक जम गया था  डाकिया अब राह भूल गया था मरने के बाद उस औरत ने  बहुत कुछ पीछे छोड़ा था  पर उसे देखने के लिए  जिन नजरों की  आज जरूरत थी  उसी ने नजरें फेर ली थी  इसीलिए तो उस औरत ने  आँखे समय के पहले ही मुद ली थी ।

प्रतिक्षाएँ

प्रतिक्षाएँ  रेत की तरह  फिसलती हैं  आँखों में घड़ी की  सुई की तरह चुंभती हैं  घने बर्फबारी के बीच  प्रतिक्षाओं के क्षण  दावाग्नी के कण बन तपिश पैदा करते हैं  प्रतिक्षाएँ हथेलियों पर  नमक की खेतीं करकें  यादों की फसल कांटती हैं प्रतिक्षाएँ अनादि काल से  ओसरे पर बैठे बूढ़ी माई जैसी बनने पर  उस जगह से उठने का  संकेत देती हैं  प्रतिक्षाएँ सफल रही तो  अर्थ है नहीं व्यर्थ हैं

क्षणिकाएँ

तुफानों में रुकने से अधिक रास्ता साफ करना हमने मुनासिफ समझा नीव का साथ  छोडने पर  केवल मकान   खड़ा रहता है  घर नहीं भीगी हथेलियां  जब साथ के लिए  या फिर आशिर्वाद के लिए  उठती है तो  वो सबसे विश्वसनीय होती है उन्होंने सफर में खोये होते हैं  अनेक भरोसे के जहाज़

तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादों को जब भी जीती हूं मेरी आंखों में एक गांव जीवित हो जाता है तुम्हारी यादों को जभी जीती हूं मुझे मेरी होने का एहसास हो जाता है तुम्हारी यादों को जब भी जीती हूं मेरे मेज़ पर पड़ी कलम कागज़ से लिपटकर खूब रोती है तुम्हारी याद मेरे साथ हर क्षण चलती हैं कभी मेरे पीछे आकर खड़ी होती हैं तो कभी धूप में छांव बन कर मेरे साथ चलती हैं तुम्हारी यादें सुबह की पहली किरण से रात के अंधियारे में तकिए पर खूब सीसकती है तुम्हारी यादें

महानगर

ये कैसा समंदर हैं जो दिन- रात घुसपैठिया बने मेरे शहर में दखल दे रहा है किसी के कंधे भीगे हैं तो किसी की हथेलियां कही  मुझे विस्थापित करने का ये  कोई षड्यंत्र तो नहीं रोज मेरे शहर की दीवारें छोटी हो रही है और यह समंदर बना रहा है अपनी दीवारें, अपनी सीमाएं हर जगह अपने निशान छोड़ कर हमारी आंखों में नमक की पुड़ियां बाँध रहा है ये समंदर हमारी आवाजें कागज में बांधकर दूर देश छोड़ कर आ रहा है ये समंदर और विरोध करने पर हमारे आँगन में नमक की परतें छोड़ देता है ये समंदर मेरे शहर की देह इन दिनों रूंदी जा रही हैं घातक बेल से और मेरे सपने में दे रहा है दख़ल मेरा शहर ऊख़डती सांसो से ऐसे ही भयावह रात में मैं जग गया इसी सपने से दरवाजा खोलकर पसीना पोछने की कर  रहा था कवायत अपनी हथेलियों से तो मेरा शहर मुझे ले गया एक नई गलियों में जहाँ लिखा था महानगर ! 

अर्धनारीश्वरी

जब जब मैंने देह पर होते निगाहों के बलात्कार का विरोध किया तब तब  मेरे श्रम को अनदेखा किया गया हाट बाजारों में भीड़ के आड़ में जहाँ पुरुषों का वर्चस्व रहा हमेशा से वहाँ अर्धनारीश्वरी के रूप में भीड़ को चीरती रही और मेरे देह पर रेंगने की मंशा से मेरी ओर बड़ते घृणित हाथों को काटती रही मैं  निगाहों की तीक्ष्ण धार से कितना कुछ सहा मैंने इस जमीन पर टिके रहने के लिये अकेली औरत के संज्ञा के साथ कितनी ही दफा मेरे जीवन के व्याकरण को बिगाड़ना चाहा पर मैं मुलायम धरती के उपज नहीं थी मेरी हथेलियां मेहंदी से कम और सूरज की पीठ पर रोटियों को सेंकने से अधिक लाल हो गई थी और मेरे शहर की सड़कें गवाह थी मेरी तलवे में उगें फफोले के एतिहास की मुझे नकारने वालों को स्विकारना होगा मेरी अस्तित्व के ढाँचे को तोड़ सके ऐसा लोहा निर्माण करने वाला किसी भी गर्भ में रच नहीं सकता

उस औरत ने

उस औरत ने दूर से देखा एक खूबसूरत पहाड़ कामयाबी का और दुनिया ने अंदाजा लगाया उसके साथ चलने वाले पुरुष का उस औरत ने देर रात तक शहरों की सडकें नापी और दुनिया ने सुबह के अखबारों में उसके बदचलन रातों का हिसाब लगाया उस औरत ने पितृसत्ता पर अधिकार की बात की तो पराए धन का जंग लगा झुनझुना पकड़ा कर उसे अपने ही जमीन से बेदखल किया गया उस औरत ने अब औरत नहीं अपनी जिव्हा को मनुष्य होने की भाषा की तालीम दी और अपने हाथों पर भिक्षुणी के नहीं अधिकार की रेखा को चिन्हित किया

अर्धनारीश्वरी

जब जब मैंने देह पर होते निगाहों के बलात्कार का विरोध किया तब तब  मेरे श्रम को अनदेखा किया गया हाट बाजारों में भीड़ के आड़ में जहाँ पुरुषों का वर्चस्व रहा हमेशा से वहाँ अर्धनारीश्वरी के रूप में भीड़ को चीरती रही और मेरे देह पर रेंगने की मंशा से मेरी ओर बड़ते घृणित हाथों को काटती रही मैं  निगाहों की तीक्ष्ण धार से कितना कुछ सहा मैंने इस जमीन पर टिके रहने के लिये अकेली औरत के संज्ञा के साथ कितनी ही दफा मेरे जीवन के व्याकरण को बिगाड़ना चाहा पर मैं मुलायम धरती के उपज नहीं थी मेरी हथेलियां मेहंदी से कम और सूरज की पीठ पर रोटियों को सेंकने से अधिक लाल हो गई थी और मेरे शहर की सड़कें गवाह थी मेरी तलवे में उगें फफोले के एतिहास की मुझे नकारने वालों को स्विकारना होगा मेरी अस्तित्व के ढांचे को तोड़ सके ऐसा लोहा निर्माण करने वाला किसी भी गर्भ में रच नहीं सकता

सिनेमाघर

मेरे  शहर का सिनेमाघर मुझे नहीं पहचानता है मैंने कभी नहीं बिताया है समय वहाँ पर रास्ते से गुजरते समय मैंने रोज पढ़ी हैं कहानियां उन चेहरों पर जो लटकते हैं हर शुक्रवार को सिनेमा के पोस्टर बदलने और उनके गमछे में रोटी की उष्मा को इकट्ठा होते देखा है मैंने गेट पर तैनात पहरेदार जिसे नहीं रहा कभी मतलब बदलते सिनेमाओं के पोस्टरों से उसके लिए तीन घंटे का समय तीस दिन का राशनभर रहा विशेष ब्रांड के खाद्य पदार्थों के डिब्बे बिनकर बाहर लाते सफाई कर्मचारियों को अक्सर बाहर ऊघते देखती हूं मैं उनके लिए सिनेमा हॉल में बैठी भीड़ ब्रांडेड डिब्बे के अलावा कुछ नहीं है जो उनके बहुत करीब से गुजरने पर भी उनकी थकी हथेलियों का कभी आभार प्रकट करती नहीं दिखी मेरे लिए सिनेमाघर कभी मनोरंजन का पता नहीं बना मेरे शहर में आए राहगीरों को रास्ता बताने भर के लिए मैंने इस्तेमाल किया मेरे शहर का सिनेमाघर