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फ़रवरी, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

युद्ध

कितने युद्धों की बनूँ मैं साक्षी  हर कदम की दूरी पर  नींव पड़ती नए युद्ध की  समेटने का क्रम नाकाफी विस्थापन का विस्तार  उजाड का फैलाव  होता जा रहा अनंत  न आप, न मैं कदाचित कभी न गुज़रेंगे युध्द की इति के उत्सव से यह फसल आयुधों की लहलहाती  पहुँचाएगी हमें  शायद  सृष्टि के पतझड़ तक कैसा यह विनाश का यह खेल ..

सागर तट

बैठती मैं सागर तट अकेली रेत का घर रोज बनाती थकती नहीं मैं सदियों से लहरे उसको रोज मिटाती लहरे कहाँ रिश्ता निभाती गुजर जाती एक पल में छुकर उस प्रेमी के भाँति जो छु जाता है केवल एक अंश जीवन का फिर भी तट पर मैं  रोज अकेली बैठी रहती ।

जिस दिन

जिस दिन समाज का  छोटा तबका  बंदूक की गोलियों से  और तलवार की धार से  डरना बंद कर देगा । उस दिन समझ लेना  बारूद के कारखानों में  धान उग आएगा बलिया हवा संग चैत  गायेगी । बच्चों के हाथों से  आसमान में उछली गेंद पर  लड़ाकू विमान की  ध्वनियां नहीं टकराऐगी । जिस दिन समाज का  छोटा तबका बंदूक  और तलवार की भाषा को  अघोषित करार देगा । उस दिन एक नई भाषा  का जन्म होगा  जिसकी वर्णमाला से  शांति और अहिंसा के नारों का निर्माण होगा ।

क्षणिकाएं

१ एक था चांद एक थी तुलसी  दोनों में प्रेम हुआ  चांद ने बादलों की आड़ में बेवफाई की  और मुंडेर पर बैठी तुलसी  ओस की बूंदों की आड़ में रोती रही । २ कुछ हाथ मरहम लगाने के  बहाने से आए तो थे पर  जख्मों को मेरा पता देकर चले गए । ३ बसंत ने तमाम रंग मेरे हिस्से कर दिए थे  पर तुम्हारी बेवफाई का रंग इतना गहरा था कि सब रंग खामोशी से मेरी जीवन से उतर गए । ४ दुनिया ने दिया दुःख  मैंने तुमसे बांटा  पर तुमने दिया दुःख  मैं किसी से बांट नहीं सकती । ५ धरा पर पड़ी बिवाईयां संकेत हैं  आसमान के रूठने की

कुएं पर पड़ी झुरियां

गांव के कुएं की देह अब झुरियों से भर गई हैं  मेंढकों ने भी शायद  वहां के बाशिंदों के मार्फ़त अपनी गठरी बांध ली हैं । बारिशों में  कुआं  मुमकिन होता तो  भीगने से खुद को  बचा लेता क्योंकि  उसके तृप्त होने का  उत्सव मनाने गगरी का  अब नृत्य नहीं होता है । क्या गांव के कुएं की देह पर पड़ती झुरियां  शहर - महानगरों की  नींव में पड़ते  ईटों के निशान है  या फिर मिट्टी को भूल  पेट की आग बुझाने के  मतलबी लोगों की पहचान है ।

आत्महत्याएं

कुछ आत्महत्याओं में  सच्चाई के पर्चें  नहीं खोले जाते हैं  हत्यारे के नाम पर  हमेशा कफन पड़ा रहता है  क्योंकि कुछ आत्महत्या  देह कि नहीं  आत्मा के होती हैं

सुनो ना

सुनो ना सुनो ना तुम्ह बनो कवि मै बनूँ तुम्हारी कविता तुम्हारे मन से बरस पडूँ छन छन लफ़्ज़ों की नदियों में उकेर दो तुम मुझमें एक प्रेमिका बन जाये  एक सिलसिला प्यार का समा जाऊं तुम्हारे कण कण मे बाँध दूं तुम्हारी चचंल गति मर्यादा में बन जाऊं तुम्हारी सीता तुम बनो मेरे राम उस कविता मे भर दो तुम कुछ रंग गुलाबी मै बह जाऊं उसमें निर्झर बनके सरिता जीवन की अँधयारे गलियों मे जला दो एक दिया प्रेम का थमा दो मेरे हाथ में एक टोकरी सुख की जिसमें कुछ रंग हो सजा दूं मै एक चित्र अगले जनम का जिसमें तुम रूक जाना अगले कई जन्मों तक भरूँ मैं अपने पंखो में उडान आऊं मै तेरे धाम  बाँध लू तुम्हे मै अपने केशों में जैसे बँधा होता है निर्मल जल मेघ में निहारता है चाँद तुलसी को निरतंर तुम बनो चाँद मै बनूँ तुम्हारी तुलसी उत्सव नही है ये एक दिन का युगों युगों का साथ है चाँद तुलसी का ह

तुम्हारे आने से

तुम्हारे आने से  नदी किनारे बैठा  बूढा पिंपल फिर से  अपने पत्तों संग शहनाई बजाएगा  तुम्हारे आने से  काली नदी में स्थित  मछलियां तुम्हारे स्वागत  के लिए नृत्य करते-करते  पानी के बाहर उछलेगी तुम्हारे आने से  मेरी राह पर पड़ने वाले मंदिर की  घंटियां बज उठेगी  तुम्हारे आने से देवी मां  के समक्ष दीये  की  थाल पुन: सजेगी तुम्हारे आने से विरहा  में जलती तुलसी के  माथे सिंदूर चढ़ जाएगा  जल अर्पण होगा  तुम्हारे आने से  तुलसी पुनः मुस्कुराएंगी ह

चूमना

मैं तुम्हें चूमना चाहती हूं जैसे श्रद्धा से चूमता है कोई ईश्वर की दहलीज मैं तुम्हें चूमना चाहती हूं जैसे मां अपने बच्चे को स्तनपान करते समय चूमती है उसका अंगूठा और तुम्हारा मुझे चूमना कुछ इस तरह से होगा जैसे अंनत काल से पड़े अज्ञानता की राशि को छूती है ज्ञान की रोशनी

प्रेम

प्रेम वो नहीं जो तुमने किया अपनी सुविधा के अनुसार बल्कि प्रेम वो था  जो तुम्हारे पास समय की  कमी के कारण तुम्हारे आफिस की फाइलों में बंद रहा  और मैं दिन महीने साल दर साल प्रतीक्षारत रही अक्सर शाम चाय चढ़ाते समय जब मैं तुम्हे पूछा करती थी  आज कितनी बार चाय हो गई तुम झूठ कहते थे हर बार पर पूरे दिन की दिनचर्या में जितनी बार तुम्हें याद करती प्रत्येक बार एक बूंद चाय की  तुम्हारे होंठ से मेरे होंठों तक का  सफर तय करती अलमारी में है आज भी खाली लाल रंग की साड़ी की जगह  जितने फिक्र से टटोलती थी  तुम्हारा बटुवा  उतनी ही बेफिक्री से प्रत्येक बार मांगती थी तुमसे हर त्यौहार में घुले रंग की भाँति पहनी साड़ी सी तुम्हारे प्रिय रंगों को बदलता देख  मैं हर बार मुस्कुराती थी  मन ही मन प्रेम वह था जो मैंने  अभावों में भी है जिया तुम्हारे छोड़ कर चले जाने के बाद भी  उपहार में तुम्हारे दिये हुए  आंसुओं को   तुम्हारी बदनामी के भय से  कभी अपनी आंखों से बहने नहीं दिया  यद्यपि हृदय से उठती हुंकार पर हर बार मेरे होठों पर विरह का एक *गीत* रख दिया और मैने उसे ही अपना जीवन का संगीत मान लिया

संबोधन

गाय के संबोधन से  नवाजी जाती हैं  कुछ स्त्रियाँ कहने/सुनने वालों के  लिए तो वे बन जाती है गुणगान का पात्र भी  पर,हमेशा से  उनके जीवन में  अहम भूमिकाएं निभाती हैं  खूँटियाँ  दूर होने की कोशिश मात्र से  लाल हो जाती हैं उनकी ग्रीवाएं और कुछ स्त्रियाँ गाय, खूँटी,रस्सी जैसे सम्बोधनों को  उतार कर चल देती हैं  ऐसे में दिग्भ्रमित हो उठता है उन तथाकथित  पुरुषों का अहंकार जैसे कि सार्वजनिक हो गई हो उनकी देह  उनके गले में  रस्सी का ना होना  हमेशा अखरता है उन्हे ऐसे में एकतरफा  आसनों पर आसीन हो काटने लगते हैं उन स्त्रियों के नाम बदचलनी के प्रमाणपत्र ऐसे पुरुषो को जो हो चुके हैं कुण्ठा का शिकार अब उन्हें भूलना होगा खूँटी को जमीन में गाड़ने की कला  क्योंकि अब उन तमाम  औरतों ने बदल दी है गाय होने की अपनी परिभाषा |