सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

फ़रवरी, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इस बाजार का रुख समझना होगा

अब कुछ दिन  बोलने से बचना चाहता हूं मैं  अब सुननी है सबकी ध्वनियाँ  और सीखनी है बात के पीछे की असल बात  इस कला को सीखे बिना  मैं नहीं समझ सकता हुं  दुनिया का यह बाजार  पहाड़ के पीछे भी एक पहाड़ होता है नदी के नीचे भी एक नदी होती हैं  वैसे ही मनुष्य के चेहरे के  पीछे भी एक चेहरा होता है  जुड़वां चेहरे का  गणित  सीखना है अभी बाकी  खुली मुट्ठी सिर्फ भ्रम होता है  उसके भीतर भी एक बंद मुट्ठी होती हैं  बाजार इंद्रधनुष्य के रंगों का विज्ञापन छाप रहा है  और सूरज के रोशनी को डिब्बे में  भरकर बेचने का भ्रम पैदा कर रहा है और ऐसे समय में यदि मुझे अपने होने को बचाये रखना है तो कछुए के पैरों से भुमि को नापना होगा किनारे पर खड़े होकर अब बाजार का रुख़ समझना होगा

यह समय

इंसानी उंगलियाँ पर केंकटस के जंगल उग रहे है और धरा का सीना  तितलियों के मृतदेह से सना पडा़ है बिल्ली के माथे पर दिया रखकर दुनिया में उजाले का भ्रम्ह पैदा किया जा रहा है बुद्ध के उपदेश उब रहे है दिवारों पर और प्रयोगशाला में बारुद के रसायन घोले जा रहे है पाठशालाओं की  इमारतें जितनी महंगी होती जा रहीं हैं उतने ही तेजी से नैतिकता गर्त में जा रही है संभ्यता की सड़के निर्जन होती जा रही है और असभ्यता के महामार्ग रोज तारकोल से चमकाये जा रहे हैं समय की जेब  स्वार्थियों के कमीज पर इंसानी  लार से चिपकाई  जा रही है

नदी

एक नदी दूर से  पत्थरों को तोड़ती रही  और अपने देह से  रेत को बहाती रही  पर रेत को थमाते हुए  सागर की बाहों में  उसने सदा से  अपने जख्मों को  छुपाकर रखा  और सागर बड़े गर्व से  किनारे पर रचता आया रेत का अम्बार और दुनिया भर के  अनगिनत प्रेमियों ने  रेत पर लिख डाले  अपने प्रेमी के नाम  और शुक्रिया करते रहे  समंदर के संसार का  और नदी तलहटी में  खामोशी से समाती रही  पर्दे के पीछे का दृश्य  जितना पीड़ादायक होता है  उतना ही ओझल  संसार की नज़रों से

प्रेम दिवस पर

प्रेम पुरा भी नहीं और अधूरा भी नहीं अधिकार न रहने पर भी पूरे अधिकार के साथ छलता रहा बरसों तक भरोसे की गठरी रीत होती गई पर फिर भी क्षमा का दान मै क्यों देती गई  ? मेरी रातें मेरी उम्र से भी लंबी होती गई बिस्तरों पर सिलवटों की गिनती कम और देह पर के जख्म़ो का गणित अधिक आय मेरे हिस्से मेरा घर घर नहीं था एक मकान था जहाँ बेमानी की मक्खियां भिनभिनाती थी और मैं  उन दिनों कहीं कहीं दिनों तक अपने मृत्यु की याचना करती संसार की सर्वश्रेष्ठ और खूबसूरत चीज थी मेरे लिए मृत्यु आज सोचती हूं दहलीज पार करना इतना कठिन था क्या उन दिनों हा बाहर पितृसत्ता का वृक्ष  इतना घना था की उसके सायें में पौधे का पनपना असंभव था और एक दिन मैंने बचपन में दुपट्टे में बांधे मेरे खूबसूरत और छोटे-छोटे सपनों की गांठों को खोल दिया एक कोमल  सा जुगनू अपनी हथेलियों पर रख अपने सफर की शुरुआत कर दी आज इतने लंबे सफर के बाद लगता है दोषी तुम नहीं थे वे थे दोषी जिन्होंने मेरे गर्भनाल की जमी को मुझे मेरा कहने नहीं दिया कभी दोष उन कक्षाओं के सीख का भी था जहाँ यह सीखाया नहीं कभी कहानी का राजकुमार केवल प्यार ह

प्रेम बचा रहता है

एक समय के बाद  सब कुछ खत्म करने की  जिद्द करता है मन  चाहे वो रिश्ता कितना भी  खास क्यों ना हो  पर लाख कोशिशों के  बावजूद बचा रहता है  उस प्रथम मुलाकात में  हथेलियों के बेजान रेखाओं के बीच बचा तुम्हारा स्पर्श मानों अंतिम रोटी पकने के बाद  बची रहती हैं चुल्हे के देह पर  उस रोटी की महक  जैसे समंदर में जाल में फंसी मछली का  अंतिम आंसू बहता रहता है  कहीं-कहीं दिनों तक समंदर के सिने पर जैसे बीज प्रस्तर पर गिरने के बाद भी  बची रहती हैं अंकुरित होने की संभावनाएँ पर स्विकार और अस्वीकार के बीच  बार-बार गुम होती तुम्हारी इस भाषा से मेरे मन के माथे पर सिलवटें पड़ गई है  और यह लौटना चाहता है अपने एकांत में  पर तुम बचे रहोगे मेरे बालकनी में स्थित  चांद और तुलसी की दूरियों के बीच  तुम बचे रहोगे मेरे शहर के ग्रंथालय के उन अलमारियों में जहांँ से पढ़ी थी  मैंने कविताएंँ विस्थापन के दर्द की  रोज सुबह  मेरी अलमारी में  साड़ी की जगह खाली देख  मुझे याद आएगा लाल रंग  हर किसी के हिस्से नहीं आता है कभी..