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जून, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
रंग कितने ही किस्म के होते हैं रंग कुछ मिलते हैं बाजारों में कुछ समाये हैं हमारे किरदारों में बाजारों के रंग खुलेआम दिखते हैं किरदारों के रंग आवरण में छुपतें  हैं कितना सुंदर होता है मजदूरी के सिक्के का रंग कभी कभार बन जाता है ये क्रांति का रंग खून बन बहता है ये रंग क्योंकि भूख का रंग सबसे गाढ़ा होता है महानगरों के फ्लायओवर के नीचे चेहरें पर जमे होते हैं बेहिसाब रंग जो दाँत निकालकर हँसते हैं उजाले में अंधकार में घाव बन रिसते हैं चुनावी मौसम के भी होते हैं अपने रंग जो लफ़्ज़ों में इन्द्रधनुष बन फैलतें हैं कार्यों में रोगी बन अलसाते हैं पर हम सब बेखबर है उस रंग से जो धीरे-धीरे गायब हो रहा है जड़ों से जो हरियाली बन खिलखिलाता था पिला बन नवोंडी जैसा शरमाता था उत्सव बन खलियानों में झुमता था किसानों के हाथ से छुट रहा मिट्टी का रंग तरसती है हवाएँ सुनने के लिए, चैत के गीतों का रंग जिस दिन ये रंग हो जायेगा नदारत उस दिन हमारी अंतड़ियों का रंग पड़ जायेगा धीरे-धीरे नीला और हवाएँ बन जाएगी जहरीली... अग्निधारा प्रतिशोध की.