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मई, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अंतिम रचना

हर रात में लिखती हूं  तुम्हारे पीठ पर मेरे एकांकी जीवन की व्यथा  सदियाँ गुजर गई  और गुजरती रहेंगे  उस रात में तुम्हारा जाना  तुम्हें बुद्ध बना गया  और आज तुम्हारे  पीठ पर मैं छोड़ रही हूं  एक प्रश्न मेरा जाना  बुध्द या युद्ध बन जाता  या फिर  तुम किसी अश्लील भाषा की तरह  अपने सभ्य भाषा के  संसार से मुझे त्यागकर  महान बन जाते शायद जैसे मैं रोज आज की  तारीख में त्यागी जा रही हूँ तुम हर उस जगह पर लौट आवोगे जहाँ तुम्हारी गाधाऐ गायी जायेगी पर तुम कभी नहीं लौटोगे मेरे  विरह से तपती दुनिया में (अंतिम कविता इस सफर की) 

नदी की देह पर उगी पपड़ीयां

सूखी नदी के देह पर  उगी पपड़ीयां बयां करती हैं  नदी के मिटने का इतिहास  टूटे नावों के और  अपाहिज पतवार के  अवशेषों की कहानियां  दर्ज नहीं होती है कभी ना ही प्यासे जानवरों की  प्यास कोई विषय बन जाता है  पर फरमान काटे जाते हैं  उन तमाम मौसमों के नाम  जिनके हाथों में हथकड़ी  असंभव है  और कलम की नोक से  अदालत में बचाये जाते हैं रेत माफियाओं की गर्दनें विकास के नाम पर जहर उगलते  कारखाने के मालिकों के बटवे पर नदी की सुखी पपडियो में दर्ज होते हैं उसके मिटने का एतिहास और सभ्यता से असभ्यता की ओर बडती अंधी पीडी का वर्तमान

हो जाओ तुम मुक्त

उस व्यवस्था से तुम  हो जाओ मुक्त  जो छाँव देने के भरोसे के बदले  छीन लेती है तुम्हारी  स्वनिर्मित आशियाने की छत उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारी हथेली पर खींच देती है एक रेखा  भाग्य के सिदुंर की  और छीन लेती है  तुम्हारी अँगुलियों की ताकत  उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारे कंधों पर रख देती है हाथ जीवन भर साथ निभाने के  आश्वासन के साथ  और तोड़ देती है एक मजबूत हड्डी  तुम्हारे बाजुओं की उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त  जो तुम्हारे ह्रदय के गर्भ गृह में हो जाती है प्रेम से दाखिल  और तुम बसा लेती हो एकनिष्ठ एक ईश्वर की प्रतिमा  जिस दिन  तुम हठ करती हो एक कतरा उजाले की वो छीन लेती है  तुम्हारी आँखों की पुतलियाँ। ।।।।।

जायज़ प्रश्न

तुम विकसित न करना  खामोश रहने की कला  गूंगे ध्वनियों के गमले  हर चौराहे पर हर हुकुमशाहों के  दरबार  के बाहर  दिन-ब-दिन इन गमलों की  तादाद बढ़ रही है धरती पर यह समय है गुलगुली जमीन पर  न्याय के प्रश्नों के बीज बोने का  जब भविष्य के कान तैयार हो रहे हैं  तब हम जायज़ प्रश्नों की  हत्या में क्यों लगे हैं  वर्तमान के कंधों पर  हम  भविष्य की झोली  टंगा रहे हैं तदउपरात हम बहुत पीछे रहेंगे  आगे जाएगे केवल  आज के दहलीज से उठाये कल के सवाल अगर उसमें जायज प्रश्न नहीं रहेंगे  तो तर्क नहीं होगा  और बिना तर्क के जिजीविषा   तो जरूरत है हमें आज  गमलों से गूंगी ध्वनियों को  बाहर फेंक देने की और उसमें रोपने होंगे सही प्रश्न  लगानी होगी हुकुमशाहो के  दरबार के बाहर एक वाजिब हाजिरी  जिससे उछलें सवाल और  पहुंच जाए भविष्य के कानों में  पक्के सफर के लिए

क्षणिकाएँ

१. तुम्हारे पास मेरा ना लौटना  मेरा कहीं और जाने का संकेत नहीं है  बस रिश्तो में भरोसे का  कम होने का आघात हैं २. गति और ठहराव के  बीच बहती हूँ मैं नदी नहीं हुं मैं पर नदी की तरह ही रिश्तों में खुद को  समर्पित करती हूँ मैं ३. जब मैं तुम्हें खोने के डर से मंदिरों की सिढीया चढ़ रही थी ठीक उसी समय  तुम मुझे दूर करने के लिए जख्म पर जख्म देकर तमाम हदों को पार  कर रहे थे

रिश्ते

जिसने गर्भनाल से  जुड़े रिश्ते की क्रूरता  सहन की हो वह अब  अन्य रिश्तो की बेईमानी  और मतलबी होने का अफसोस नहीं मनाती है देह में बहता रक्त भी  जिसे बोझ सा लगने लगता है  वो मृत्यु का डर नहीं करता है  देह पर लगे फल को ही  एक बेल का असमानता की  दृष्टि से देखना जिस दिन उसने देखा उस दिन से ममता की परिभाषा ही उसने बदल कर रख दी है

महानगर को गाँव कहाँ याद आता है

अपने आलीशान महलों से उठकर  कभी महानगर भी गांव जाता राह तकते आंगन में  कुछ पल सुस्ताता जर्जर होते चौक पर लगी किसी नेता की  प्रतिमा के सामने सेल्फी खीचता किताबों की दुकान में भी काश अपनी हाज़िर दे आता जहाँ बोया गया था उसके मन में एक बीज कविताओं के सृजन का पर आलिशान महलों से उठकर अब कहाँ  महानगर गाँव जाता है आंगन के नाम पर उसके पास शानदार बालकनी जो है महानगरों के बढियां रेस्टोरेंट के सामने गाँव के स्टेशन पर बैठे चायवाले की चाय का स्वाद फिका जो पड़ गया है अब  फैशन के नाम पर अपने दोस्तों के पास  महानगर बस एक संदेशा भेज देता है 

अंतिम घर जब बचा था

अंतिम घर जब बचा था  तब मैं गांव गया था  रास्ता मेरी स्मृतियों में बसा था  पगडंडियों का नामोनिशान नहीं बचा था  मैं गैरूओ के पदचाप  जब ढूंढ रहा था तब बार-बार  जंगली झाड़ियों से परिचित हो रहा था  मैंने देर तक ढूंढा था उस दिन  लाल बुढी का ओसरा  जिस पर बैठकर वो  पूरी बस्ती का चावल गेहूं   पीसा करती थी चक्की में बदले में आता था  किसी ना किसी घर से  उसके लिए मांडभात  पर पूरी बस्ती को घर समझकर  खिलाने -पिलाने का रिवाज  शायद लाल बुढी के साथ ही उठ चला था कहां गुम हो गए वो  छोटे बड़े जमीन में खोदें गड्ढे  जिसमें गोबर भूसा  डाल  लड़कियां उपले थापा करती थी  आयी भी होगी वे  अपने मायके को ढूंढते कभी जो कभी अस्मिताओं के हाथ से  अर्पण होता था  नाजुक थी तुलसी बिरवा पर  या फिर श्री गणेश के विग्रह को  जल समाधि दे पावन होता था  गांव का वो कुआँ   आज कितना विकराल रूप  धारण कर चुका था इधर -उधर फैले  आम के वो पेड़  फलों से लदे तो थे  पर बच्चों से घिरे ना होने के  कारण उदास से खड़े थे उस दिन जब मैं अंतिम बचे घर की तरफ मुड़ा था  तो दीमकों की उभरती बस्ती देख  मन ही मन खूब रोया था  चुल्हे की देह पर आग के  ना होने

पितृसत्ता

पिता से भी अधिक  उसने मां को  पितृसत्ता की डोर को  कसते देखा था  जब बेटी ने  अपने सपने बोने के लिए  गजभर जमीन मांगी थी  तब बची कुची  तलवे की मिट्टी भी छान ली थी  जिस गगरी से उसने  कुए पर निशान बनाए थे  उस गगरी को भी  वापसी में उसने रोते देखा था  पर मां की आंखों में  एक आंसू तक नहीं उमडा था  गर्भनाल  को शायद  किसी तिश्ण हत्यार से काटा था  इसीलिए शायद ममत्व को  कोमल धागे से नहीं  किसी कंटीली रस्सी से बांधा था  पितृसत्ता की परंपरा को  पिता से अधिक मां को  निभाते देखा था  इसीलिए आज इस स्वार्थी संसार से उसने अपना हाथ खींच लिया था

क्षणिकाएं

१. अन्याय को देख  मेरा मौन होना  मेरी जिव्हा के  अघोषित मृत्यु का प्रमाण है । २. बहुत कुछ गिरता है गिर रहा है  पर विचलित नहीं करता है  पर इंसानियत का गिरना  विचलित ही नहीं भयभीत करता है । ३. माओं के स्तनों में  उमड़े दूध का गणित  बिगड़ रहा है इन दिनों अपने ही आंगन में खिले फूलों के लिए असमानता का  भाव पैदा हो रहा है धीरे-धीरे  यह स्वार्थ की पराकाष्ठा का प्रमाण है । ४. कुछ रिश्तों  को बचाना था इसलिए थोड़ा झुककर  उठा लिये  वरना हमारे भी स्वाभिमान में  एक मजबूत रीढ़ की हड्डी मौजूद है ।

वे जो लोकतंत्र के बीहड़ में खो गए

वे जिनका  आकलन नहीं हुआ कभी पर वो ही रहे सदा धरती के सबसे करीब  कभी पत्थरों को तो  कभी ईटों को बनाकर बिछोना  आसमानी चादर ओढ़े रहे पूरे दिन के श्रम के बाद  हक की लड़ाई अनसुनी कर पेटभर रोटी के लिये  बहाते रहे लहू पसीने की शक्ल देकर बदन भर कपड़ा और  मुट्ठी भर बर्तनों को मानकर पूँजी  जूझते रहे कभी सूरज के तेज को अपनी पुतलियों में ना उतार सके बस भुजाओं की गरमाहट से कभी किसान तो कभी मजदूर बन धरती का सीना खोदते रहे चमकीली पसीने की बूँदों को बदन से गिराते गये धान के गर्भवती होने के  उत्सवों को मनाते रहे मगर अन्न के  चंद दानों की खोज घर से बेघर करती रही हवा पानी जानवर पेड़  सभी गिने गये पर ये धरती के वीर खो गए लोकतंत्र के बीहड़ में...