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मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नदी की नीयति

प्रेम उसने इस दो अक्षर के लिए कितने बीहड़ पार किए थे कितनी जिल्लते कितनी पीड़ा कितने *धोखे* कितने *फरेब* सहे थे अब तक फिर एक दिन उन तमाम रिश्तों पर सांकल चढ़ा दी थी और वो लौट आयी थी उस जगह जहां एक रोज सात साल की बच्ची ने सिलबट्टे के पास बैठ जब देखा था बारिश की एक नन्ही बुंद को छत से टपकते देख अपनी पथराई आंखों से कहा था उस बच्ची ने तुम तो बिच्छड़ गई ना मेरी तरह अपनों से पर तुम गुम ना होना कहकर उस बुंद के अस्तित्व का पानी वो छोड़़ आयी थी आंगन में और कहां था तुम नदी बन जाना और एक रोज सागर से मिल लेना पर तालाब के किचड़ में गुम ना होना जब वो लौट आयी थी उस दिन उसी सिलबट्टे के पास बैठ खूब रोई  थी आज उसने फिर एक बार हिम्मत की थी उस सांकल को खोल देहलीज पार कर प्रेम के दो अक्षर में फिर एक बार घुल जाने की और आज फिर एक बार टूटे मन और छलनी देह लिए लौट आयी है ना ही सिलबट्टा है ना ही वो छत बची है जिससे एक बूंद बारिश टपकी थी कभी नदी समंदर को मिलने की चाह में आज तालाब के कीचड़ में गिरी थी इस तरह और एक नदी अपवित्र होकर मृत घोषित  कर दी थी वर्तमान के दस्तावेजों से

प्रेम का तर्पण

प्रेम का तर्पण कब के बिछडे थे बस रस्में बाकी हैं  अब उनका समापन कर दूँ  अपने सपने जो उलझे हैं सुलझाकर वापस कर दूँ  तनिक ठहर जाना  । बचपन की वो मीठी यादों से नाता तोड़ के जाना  यौवन की दहलीज से नयनो को भी मोड़ के जाना  तनिक ठहर जाना संदूक खोल लूँ  अर्पित कर दूँ फूलों की अस्थियाँ ज़रा जलार्पण कर दूं  अश्रू जल से नहाये पत्र तथा उसमें लुप्त वर्ण समीर संग झुलाकर वापस कर दूँ  तनिक ठहर जाना जिन शब्दों और कदमों से परिचय था हमारा उनके मन को जरा तसल्ली दे जाना  तनिक ठहर जाना बिछुड़ कर भी जो है पाना हारकर भी जो है जीतना आत्मा को अर्पण कर लूँ साँसों का तर्पण कर लूँ तनिक ठहर जाना ।

औरत

औरत  हर औरत के भीतर  होता है एक वृक्ष  बडी मजबूती से अनुभवों की जडे पसारती है वो भीतर से भीतर  निरतंर बचती है वो दीमकों से  जो बैठा है जा उसके स्वाभिमानी जडो पर  औरत के अतंस में  बहती है एक नदी खारेपन की ओढकर उस पर परत फौलादी दौडती है वो निरतंर सघर्ष की धूप  मे नन्ही कपोलो के लिये लेकर नमी अचानक होता है उसे आभास  जड़ों से दूर होती मिट्टी का एहसास  यातनाओ का चक्र हाथ से समेटते रिश्ते होते है रक्तरंजित पत्तों का मौन होना शुरू होता है वृक्ष का ठूंठ हो जाना

तुम्हारी ख़बर

तुम्हारी खबर                - तुम्हारी ख़बर ख़बरी की जुबानी पहुँच रही है संसद के भीतर तुम्हारे छालों से भरे पैर छु सकती है हर डगर हर शहर पर ठहर नहीं सकते तुम राजपथ के आलिशान सड़कों पर वही सड़क वही संसद तुम्हारे लिए जहां कागजों पर रोटी पकाकर आंकड़ों से सेंकी जा रही हैं निरंतर अच्छा हुआ दम तोड़ा तूने पक्की सड़क पर कच्ची सड़क पर पहुंचते तो शायद सरकारी बहिखातें से झाड़ें जाते और निकलते निकलते तुम लाश के मुआवजे से वंचित रह जाते

अनचाहा

बड़ी माँ जैसे खेत में पनपे अनचाहे धान को उखा़ड़कर फेंक दिया करती कुछ इसी तरह अनचाहा जन्म हुआ मेरा जैसे छत पर किसी  पौधे के उगने से चितां में पड़ जाती थी दादी छत के टुटने के कुछ ऐसा ही रहा जनम मेरा सुनाती थी अक्सर पड़ोस की चाची पिता ने किस तरह से भारी मन से दो रूपये दिये थे दाई माँ को और ढेर सारी गालियाँ उस ईश्वर को याद आता है सचित्र वह दृश्य आज भी जब मैं बैठती मोड़कर पैर पीछे की तरफ दद्दा देते खूब गालियाँ उनका मानना था तुम्हारे बाद लड़के का जन्म होगा और पीछे पैर डालने से है।उसका अपमान जैसे-जैसे बड़ी होती गई घर के हर कोने में मैने जगह बनाई एक दिन बिना किसी के, मन के तालों को खोले फिर, मै वहाँ से निकल गयी हमेशा के लिये

क्षणिकाएं

१ आंखों के किनारे पर एक बून्द आंसू छिपा रहता है मेरे ह्रदय के साथ हर क्षण मौन संवाद करता रहता है २ तुम्हारी यादों से जब  मैं मौन संवाद साधती हूँ  तब आँखों से बहते आँसू  शब्द - शब्द बन विह्वल हो उठते हैं ३ तुम्हारा होकर भी  तुम्हारा ना  होकर रहना  तकलीफ देता है ४ डायरी के अंतिम पन्ने पर लिखी एक कविता हो तुम बया न कर पाऊंगा मैं कभी वो दर्द हो तुम। ६ दो आंखें रोज बैठती है खिड़की पर दूर तलक जाती है खाली हाथ लौट आती है ६ लफ़्ज़ों को डुबो दिया है हमने आंसुओं के सैलाब में अब एहसास का दरिया जब भी उमड़ता है रख देती हुं लफ़्ज़ों को आसमान पर ७ जहाँ पर तुमने अपने वचनों को तोड़ा था वहीँ पर मेरी मुस्कुराहट ने दम तोड़ा था

तुम्हारे इंतज़ार में

तुम्हारे इंतज़ार में लिखना चाहती हूँ युद्ध के दस्तावेजों पर मेरा प्रेम तुम्हारे लिए जिससे मिट जायेगी युद्धों की तारीखें पिघल जायेगा औजारों का लोहा लहरायेगा हवा संघ शांति का परचम इंगित होगा जिसपर मेरा प्रेम तुम्हारे लिए तुम्हारे इन्तजार में मैं लिखना चाहती हुं रेगिस्तान की पीठ पर मेरा प्रेम तुम्हारे लिए जिससे पिघलेंगे विरह के बादल तपती रेत से निकलेगी एक नदी हो जायेगी तृप्त हर गगरी की देह गोद दूंगी पानी के ह्रदय में मेरा प्रेम तुम्हारे लिए तुम्हारे इन्तजार में मैं लिखना चाहती हुं मिट्टी में धंसे पंगड़डियों पर मेरा प्रेम तुम्हारे लिए और वहां बैठ  मैं गुनगुनाना चाहती हूं एक गीत वर्षा के आगमन का निराश किसानों की पुतलियां अंकुरित कर  धान की पातियो पर अंकित करुंगी मेरा प्रेम तुम्हारे लिए
लॉकडाउन उतना आसान नहीं है जितना दिख रहा है ये लॉक डाउन अदृश्य जंजीरों से बंधे अंदर ही अंदर  छटपटाना दुनिया भर के लाखों लोगों की मृत्यु रीते आंखों से देखना उनके लिए तो उतना आसान नहीं है ये लॉकडाउन जिसका कल का कोई ठौर नहीं जो हथेली पर भूख लेकर जीता है फुटपाथ पर देह की तह करके सोता है सड़कों पर भीख मांगते भिखारी उनके लिए तो उतना आसान नहीं है ये लॉकडाउन भीड़ में खिलौने-गुब्बारे बेचते किसी कोने में बैठे मछली सब्जी बेचने वाले दिन की कमाई अन्न की गवाही इस तरह घर चलने वाले उनके लिए तो उतना आसान नहीं है ये लॉकडाउन बेघर निराधार अनाथ फ्लाऔवर के नीचे से नाले किनारे से आसमान को ताकने वाले उनके लिए तो उतना आसान नहीं होगा ये लॉकडाउन दिन-रात पति से पिटती औरतें उनके साये से भी ड़रती शारीरिक और मानसिक अत्याचार सहती जो पहले से ही एक चक्रयुह में फंसी है उनके लिए तो उतना आसान नहीं होगा है ये लॉकडाउन ह
तुम्हारे शहर में तुम्हारे शहर में आज भी मै इन पगडंडियों पर ढूंढती हूँ तुम्हारे क़दमों के निशान ताकि रखकर अपनी कदमें उनपर चल सकूं उसी धैर्य और सहनशीलता के साथ पा सकूं तुम्हे अपने भीतर जिन्हें भूल तुम नहीं लौटे कभी इन पगडंडियों की ओर किन्तु सुना है तुम्हारे शहर में संवेदनाओं को कहते हैं नाटक इसीलिए शायद वहां होते हैं उपरिपुल, राजमार्ग नहीं होती पगडण्डीयां ! ह
 *तलाक मांगती औरतें* तलाक माँगती औरतें अच्छी नहीं लगती है वह रिश्तों के उस बहीखाते में बोझ सी लगने लगती है जिस पर पिता ने लिखा था उसके शादी का खर्चा उस माँ की नजरों में भी ख़टकने लगती है जिसमें अब पल रहा होता है उसकी छोटी बहन के शादी का ख्वाब.... तलाक माँगती औरतें बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है गाँव का कुआँ हररोज सुनता है उसके बदचलन होने की अफवाह जब मायके आती है वातावरण में एक भारीपन साथ लेकर आती है जैसे अभी-अभी घर की खिलखिलाहट को किसी ने बुहारकर  कोने में रख दिया हो तलाक माँगती औरतें किसी घटना की तरह चर्चा का विषय बन जाती है उछाली जाती है वह कई-कई दिनों तक तलाक मांगती औरतें बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है दो घरों के बीच पिसती रहती है मायके  में कंकड़ की तरह बिनी जाती है और एक दिन, अपना बोरिया-बिस्तर बांध किसी अनजान शहर में जा बैठती है और जोड़ देती है अपने टुटे पंखों को दरवाजे पर चढ़ा देती है अपने नाम का तख्ता आग में डाल देती है उन तानों को जो उसे कभी दो वक्त की रोटी के साथ मिला करते थे चढ़ा देती है चूल्हे पर नमक अपने पसीने का और ये औरतें इस तलाक शब्द को खुद की तल