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जुलाई, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

अक्सर

रिश्तों के चेहरे होते हैं  ये कौन कहता है हमने तो पीठ ही देखी हैं अक्सर गर्भ में सीचें पाने का भी हिसाब मांगती माये देखी हैं अक्सर लिप्सा के भट्टी में कपास सम रिश्तों को ज लते देखा है अक्सर जिव्हा पर मीठी भाषा रखने वालों के ह्रदय में तलवारों की तान सुनी है हमने अक्सर मकानों को तो बाढ़, तूफानों में बहते देखा हैं रिश्तों के अविश्वास में घर को गीरते देखा हैं अक्सर सभ्यता के पैरों के जूते को असभ्यता के पाषाण पर खीसतें  देखा है हमने अक्सर पतन की पराकाष्ठा से पुनः धरा के निर्माण के सपने आता है मुझे अक्सर

एक बुँदे बारिश

जनने के पूर्व ही  दफन की मिट्टी तैयार थी मुट्ठी में  लोरियों की मीठी तान  अंधकार में राह भटक गई  ईश्वर के दरबार में  शिकायतों की अर्जी लग गई  बारिश की धार अमृत सी  उसे सींच गई  उपेक्षा की नजरों की परिभाषा  कोमल निष्पाप मन क्या जाने  नन्ही उंगलियां उठती रही  पर स्पर्श न आया कोई उस ओर  हरे साम्राज्य की नींव में  होती है एक ऐसी ईट जिसके ढेहने से  ढेह सकता है संपूर्ण स्वामित्व