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नवंबर, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

उपमायें

लड़कियों को उपमायें  मिलती है  चांद , फूलों की ओस की बूंदों की  उम्र के इस पड़ाव पर  जब मैं खंगालती हूं  मेरे भीतर के भयानक रस में  डूबी उपमावों की पोटली कानों में गूंजने लगती है  वही चिर परिचित आवाज पिछले घरकी चाची कहती थी  तू जनते समय महादेव  चुल्हे के पास बैठे पार्वती को  मना रहे थे इसीलिए तो तेरा रंग  चुल्हे की कालिख़ सा चढ़ गया  बड़ी सी मेरी आंखों में भी नहीं देखी  कभी किसी को खूबसूरती   अक्सर सुनती थी मैं  जिस साल मै पैदा हुई थी  वो समय पानी के अकाल का था  सबकी आंखें आसमान को  ताकते ताकते बाहर आई थी  कलसी लिए चलती मेरी धीमी चाल देख  ओसारे पर बैठी आजी कहती  कुष्ठ रोग से गले तेरे पैर देख  तुझे अगली गाड़ी से ही  मैयके रवाना कर देगी सांस तेरी आज समय भले ही बहुत आगे निकल आया हो  ओसारा न रहा ना आजी की सांसे  पर उसके शब्द शब्द वर्तमान के  इस ब्रह्मांड में निरंतर घूम रहे हैं निरंतर

हम अकेले जीते लोग

हम अकेले जीते लोग जिनसे समय ने तकदीर ने छीन लिया हमारे साथ चलते कदमों को और बहाल कर दिया है हमारे जीवन में रिक्तता हमारी हथेलियों को नहीं होता है कभी  स्पर्श किसी अन्य हथेलियों का ना ही हमारे हिस्से आती हैं वो सुबहे जिममें शामिल होता है किसी के जगाने का मुलायम स्पर्श न हीं देर रात तक दरवाजे पर टिके रहते हैं किसी के कदम हमारा इंतजार लेकर हम अकेले जीते लोग जो बेगुनाह होकर भी गुनहगार बन सबकी आंखों में प्रश्नचिन्ह बन जाते हैं त्योहारों के बाजार में हम खो जाते हैं लेकर अपना गम हम बस उतने ही जिंदा रहते हैं जितनी हमारे कंधों पर जिम्मेदारियों का वजन रहता है हमारे शौक हमारी पसंद नापसंद इसका ख्याल कोही नहीं रखता और एक दिन हम ही भूल जाते हैं हम क्या चाहते हैं क्या नहीं हम अकेले जीते लोग रात में करवट बदलने से भी डरते हैं तारों से भरे आसमान में धरा पर लेकर तन्हाई हम अपने आप से सिमट कर सोते हैं

कर दिया है तुम्हें मुक्त

मैं तुम्हे मुक्त कर रही हूँ इस रिश्ते की डोर से कही बार मैंने महसूस किया है  तुम्हारी पीठ पर  मेरा अदृ्श्य बोझ इन दिनों अधिक बढ़ रहा है हम दोंनो के बीच  कदमों का फासला भी कोशिश करती हूँ  कह दूँ  तुम्हारे कानों में  वही प्रेम के मंत्र जो प्रथम मुलाकात में तुमने अनायास ही घोले थे मेरे कानों  में और समा गये थे तुम मेरे रोम -रोम में मैं स्वार्थी तो थी ही पर थोड़ी बेफ़िक्र भी हो गई थी तुम्हारी चाहत में दिन-रात तुम्हारे ही इर्द -गिर्द चाहती थी मौजुदगी  जब तुम तल्लीन हो जाते थे अपने कर्मो में मैं रहती थी प्रयासरत अपनी मौजूदगी का एहसास  कराने में जब कभी पड़ता था  तुम्हारे माथे पर बल और सिमट जाती थी  ललाट की सीधी सपाट रेखाएँ मैं रख देती थी धीरे से  तुम्हारे गम्भीर होंठो पर अपनी उँगलियों को मेरा रूठना तो सिर्फ इसलिए होता था कि मैं तैरती रहूँ तुम्हारे मनाने तक  तुम्हारी ही श्वास एवं प्रच्छवास की उन्नत होती तरंगों पर जिम्मेदारियों के चक्र में जब जम जाती थी थकावट की उमस भरी धूप और शिथिल पड़ जाती थी मैं तुम मुझे उभारते बिना हाथों का स्पर्श किये और रख़ देते थे मेरे कदमों के नीचे एक तह हौसले की पर इस

गाँव

बहुत से गांव इसलिए भी बचे हैं क्योंकि गांवों में माये जिंदा है और अक्सर शहर महानगर कभी कभार  बड़े भारी मन से वहां हो आते हैं नहीं तो अब कम ही लगती हैं महानगरों की मिट्टी गांव के सड़कों पर एक समय यह भी था गांवों में कोई भी राह गुजरता बिढे पर बैठ भागीदार बन जाता था बटुले के अन्न का पर अब डोरबेल बजने पर अविश्वास की आंखें दरवाजे से झांकती हैं गांवों से हम शहरी सब कुछ लेकर आए श्रम का पसीना पोछने गमछा पेट के भीतर की अतडिया पर ओसारें पे बैठा भाईचारा और बिना ताले के दरवाजे़ का भरोसा तथा पूर्वजों की सभ्यता की डिबरियां हम लाना  भूल गए अब भी बहुत से शहर महानगर इसलिए भी गांव की तरफ मुड़ते हैं क्योंकि वहां पर पुश्तैनी जायदाद बची हैं