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जुलाई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
अनाथ अनाथ के हिस्से आता रहा हमेशा बचा हुआ प्रेम, रिश्ते, रोटी ठीक उसी तरह होती है उसकी स्थिति चौराहे पर नजर उतारकर रखे सामान की  तरह मानो दहलीज को बचाया गया हो किसी काले साये के आने से गर्भ की नाल कटने के बाद भी दरबदर वो घूमता है ढूंढने उस नाल की नमी अनाथ टूटे वृक्ष की तरह आसमान की तरफ ताकता रहता है दो बूंद स्नेहसिक्त वर्षा के लिये सतत अपनी पीठ पर ढोता है मरे हुये रिश्ते का पाषाणी अवशेष बाहर का शोर ऊंचे से ऊंचा हो तो भी नहीं दे पाता है मात उसके मन के अंदर के खालीपन को उसकी उम्र कपास की तरह दौड़ती है और पर्वत जैसा भार सहती है दर्द की थैली पर रख देता है वो एक बोरी मुस्कान और बाँटता रहता है शहंशाह की तरह
पहली बारिश में ------------------------------ निहार रही थी मै उसे अपनी खिड़की से लोहे की सलाखों के पीछे से ठीक उसी समय और एक बारिश शुरू होती है मेरी स्मृतियों में जिसमें भीग रहा है मेरे बचपन का गाँव पोखरों में उछलती मछलियां भर रही है मेरे मन को खोल रही है गिरहों को मिट्टी की  देह से उठती सुगंध ओसरे पर बैठी बूढ़ीं आँखे आँगन किनारे लगे पौधे बूंदों के संग रोम रोम खिलखिलाते इठलाते पहली बारिश की बूँदें भिगों जाती हैं सबकुछ पहली बारिश में बुझ जाती थी प्यास गाँव के एकलौते कुँऐ की बच जाता था बेचारा अस्मिताओं के अभिशाप से वह भर जाता है उत्साह से बुझाने औरों की प्यास रात का सन्नाटा घने बादलों का साया उसे चीरती मेंढ़को की ध्वनियाँ खेती के सीने पर बढ़ती जलधारायें उसके संग अँकुरित बीज जो भर रही है आस मिटा  रही है चिंता की रेखा़यें टूटे छतों के नीचे सुस्ताते किसानों के मन मस्तिष्क में पहली बारिश में बदल जाता है रंग चेहरों का स्मृतियों का उम्मीदों का पहली बारिश में।  
पिढा़ से गुजरती एक औरत वो औरत थी उसकी वो जब चाहता अपनी मर्ज़ी से उसे अलगनी पर से उतारता इस्तेमाल करता और फिर वही ऱख देता फिर आता फिर जाता जितनी बार उसे उतारा जाता उसके शरिर मे एक नस टूट जाती चमड़ी से कुछ लहू नजर आता जितनी बार उसे उतारा जाता उसके नाखुनों से भूमि कुरेदी जाती हर कुरदन जन्म देती एक सवाल को उसके आँखो का खारापानी जम जाता उसके घाव पे उसके लड़ख़डा़ते पैर उसके रक्तरंजित मन उसकी लाचारी उसकी बेबसी उन्ह तमाम पुरूषो के लिये एक प्रश्न छोड़ जाती है औरत केवल देह है ???