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संदेश

वो एक आवाज़

कोई सौ आवाजें दें तो कम से कम एक आवाज़ पर तो मुड़ लिया कीजिए किसे पता सांसों की या रिश्तों की आखिरी आवाज़ न बन जाए वो एक आवाज़।
हाल की पोस्ट

हर बार उसे ही चूना

उसका चुनाव हर बार किया गया  पर अपनाने के लिए नहीं  बार-बार त्यागी गई वो  कभी गर्भनाल की जमीन से  तो कभी सप्तपदी के फेरों में  पर प्रेम के चुनाव में जब वो  हार गई  तब उस औरत ने त्याग दिया इस संसार का मोह  निष्कासित कर दी उसने प्रेम की परिभाषा और दडित किया खुद से खुद को और वंचित रखे वो तमाम सपने जो कभी प्रेम के नाम पर उसके आंखों में भर दिये थे जो आज शैन शैन आंसू बन रक्त बहने की   पीड़ा दे रहे थे

प्रेम 1

अगर प्रेम का मतलब  इतना भर होता एक दूसरे से अनगिनत संवादों को समय की पीठ पर उतारते रहना वादों के महानगर खड़ें करना एक दूसरे के बगैर न रहकर हर प्रहर का  बंद दरवाजा खोल देना अगर प्रेम की सीमा इतनी भर होती  तो कबका तुम्हें मैं भुला देती  पर प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई वो लकीर है  जो मेरे अंतिम यात्रा तक रहेगी  और दाह की भूमि तक आकर मेरे देह के साथ मिट जायेगी और हवा के तरंगों पर सवार हो आसमानी बादल बनकर  किसी तुलसी के हृदय में बूंद बन समा जाएगी  तुम्हारा प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई  वो लकीर है जो पुनः पुनः जन्म लेगी

रमा

शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही  थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी  एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान  भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा  “  आप कहां जा रही हैं ?’’  “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।

हत्या

तुम बड़े माहीर बनते जा रहे थें  हत्या को आत्महत्या का वस्त्र पहनाने में  तुमने मुझे कहा ज़हर पीकर मर जाओं  तुमने मुझे कहा नदी के सूपूंर्त हो जाओं  तुमने मुझे कहा पंखे से लटक कर मर जाओं पर मैंने साहस से जीवन चुना   पर तुम राक्षसीवृत्ती के थे  इसलिए तुमने हंत्यार ही चुना मेरे लिए  और जीवन हार गया

प्रेम

मै आप से जो कहती हूँ  वो असल में मुझे कहना ही नहीं होता है  जो कहना होता है  उसके लिए  कोई भाषा ही नहीं गढी़ हैं अब तक न ईश्वर ने न मनुष्यों ने मेरे इस जन्म से अजन्मे प्रेम के लिए  तुम्हारे उस संसार में  कहीं पर भी तिलभर जगह नहीं है पर मेरे हृदय में बसा प्रेम  सारा ब्रह्मांड व्याप्त कर सकता है  रंग कौन सा है इस प्रेम का  देश कौन सा है इस प्रेम का  और नाम  ?  हमने साथ-साथ नहीं सांझा की कोई गली कोई सड़क  ना कोई शहर ना गाँव हवा का ना रंग ना रूप  आसमान का कोई छोर  ना ओस की बूंदों का कोई घर इसलिए नहीं कह सकती  कभी जो तुमसे कहना चाहती हूं हमारे प्रेम की संवादोंकी भाषा गढ़ने में ईश्वर भी असहाय हैं

स्मृतियों में

आज भी वो पीठ करके सोती हैं उस ओर जो आज खाली हैं सिलवटें अब नहीं पडती हैं बिस्तरों पर तमाम सिलवटें धीरे-धीर उतरने लगी है उसके चहरे पर वो कभी नहीं देख सका उसे मन की आंखों से यदा-कदा जब  वो हाथ बढ़ाता उसकी ओर उसकी देह ही मुख़र होकर बोलती पर उस रात की सुबह में एक फर्क होता रसोईघर की टेबल पर देह का श्रम रखा मिलता सप्तपदी के उन्हं पाक वचनों में अग्नि की उस आँच में सिंदूर की रक्तिम रंग में उसकी होकर भी बार-बार  वो उसे खरीदते रहा और वो बिना खुद को बेचे नीलाम होती रही अपने ही आँगन में