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संदेश

औरत

वो औरत थी उसकी वो जब चाहता अपनी मर्ज़ी से उसे अलगनी पर से उतारता इस्तेमाल करता और फिर वही ऱख देता  फिर आता फिर जाता जितनी बार उसे उतारा जाता उसके शरिर मे एक नस टूट जाती चमड़ी से कुछ लहू नजर आता जितनी बार उसे उतारा जाता उसके नाखुनों से भूमि कुरेदी जाती हर कुरदन जन्म देती एक सवाल  उसके आँखो का खा़रापानी जम जाता उसके घाव पे उसके लड़ख़डा़ते पैर रक्तरंजित मन उसकी लाचारी उसकी बेबसी उन्ह तमाम पुरूषो के लिये एक प्रश्न छोड़ जाती है औरत केवल देह मात्र है  ? 
हाल की पोस्ट

कुछ कविताएँ

1. उस साल मेरे शहर में बहुत सी प्रतिमाओं का अनावरण हुआ था और उसी साल बहुत से बेघरों को उ न प्रतिमाओं के नीचे आश्रय मिला था 2. एका अरसे बाद मैं रेलवे स्टेशन पर गया पर मुझे ना तुम्हारे पास आना था ना ना तुम मेरे पास आ रही थी बस में इस आने जाने वाले खेल की यादों में फिर से एक बार डुब जाना चाहता था झूठा ही सही फिर एक बार में तुम्हें सच मानकर जीना चाहता था

वो एक शाम

उस शाम तुम गए फिर कभी नहीं लौटे न जाने कितने डूबते   सूरज मैंने जलभरी आंखों से विदा किये जाने कितनी रातों ने मेरी सिसकियों को अपने गर्भ में पनाह दी सूरज उगता रहा पर मेरे देहरी तक पहुंच ना पाए मैं उस शाम के दहलीज पर आज भी खड़ी हुं मानो एक युग से

हम अकेले जीते लोग

हम अकेले जीते लोग जिनसे समय ने तकदीर ने छीन लिया हमारे साथ चलते कदमों को और बहाल कर दिया है हमारे जीवन में रिक्तता हमारी हथेलियों को नहीं होता है कभी  स्पर्श किसी अन्य हथेलियों का ना ही हमारे हिस्से आती हैं वो सुबहे जिममें शामिल होता है किसी के जगाने का मुलायम स्पर्श न हीं देर रात तक दरवाजे पर टिके रहते हैं किसी के कदम हमारा इंतजार लेकर हम अकेले जीते लोग जो बेगुनाह होकर भी गुनहगार बन सबकी आंखों में प्रश्नचिन्ह बन जाते हैं त्योहारों के बाजार में हम खो जाते हैं लेकर अपना गम हम बस उतने ही जिंदा रहते हैं जितनी हमारे कंधों पर जिम्मेदारियों का वजन रहता है हमारे शौक हमारी पसंद नापसंद इसका ख्याल कोही नहीं रखता और एक दिन हम ही भूल जाते हैं हम क्या चाहते हैं क्या नहीं हम अकेले जीते लोग रात में करवट बदलने से भी डरते हैं तारों से भरे आसमान में धरा पर लेकर तन्हाई हम अपने आप से सिमट कर सोते हैं

छुटना

बहुत कुछ छूट गया है  बहुत कुछ छूट रहा है  इस तरह छूटने की क्रिया  लगातार जारी है ।  बस अब एक अंतिम सांस का छूटने का इंतजार है ।  ठीक वैसे ही  जब तुम छोड़ कर चले गए थे  उस रोज एक नस टूट गई थी  एक सांस जिम्मेदारीयोंने पकड़ रखी थी  बस उसी सांस का अंतिम बार छूटना बाकी है। 

मेरा अकेलापन

खूबसूरत था मेरा अकेलापन  जिसमें मैं थी केवल मैं पर तुम ज्वार की तरह दस्तक दे गए  और तहस-नहस हो गया  मेरा शेष जीवन  उदास नैनों में बसती है एक नदी  जो तुम्हारे अपमान के  छालों को बहाती हैं हरदम  कितनी ही दफा चाहा मैंने  मिटा दू उन स्मृतियों को  जहां तुमने दिये जख्मों का  एक पर्वत सा खड़ा हैं  पर पाषाण पर खींची रेखा  ना मिटी सकी ना  समय की धूल ठहरी सकी  मुंडेर पर बैठे तुलसी  आसमान में ठहरा चांद  दिए की लौ में अक्सर  भाप लेते हैं मेरे आंखों से बहत जल  खूबसूरत था मेरा अकेलापन  जिसमें मैं थी केवल मैं पर आज वहां गूंजती है  मेरी सिसकियों की ध्वनि  और खारे पानी का जलाभिषेक

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं