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संदेश

माँ

माँ उनकी स्मृतियों को नमन  घर के दालान को खाली कर पांव फटते अंधयारे में पहली रेलगाड़ी से गाँव से लेकर आया था तुम्हे माँ तुम्हारी कमजोर आँखों ने कितना भर देखा होगा उस सुबह अंतिम बार अपने घर को माँ तुम्हारे जाने से कुछ नहीं बदलेगा केवल इतना भर होगा अब कभी मैं इस भीड़ से भरे शहर में स्टेशन से उतरकर मेरे पिछे चलने वाली माँ को अपने घर की तरफ लेकर नही जा पावुगा कभी मोबाइल में सुरक्षित रखी तुम्हारी दवाईयों की पर्ची गेलरी में मौजूद रहेगी माँ तुम्हारे कारण ही बहुत से रिश्ते अब तक टुटने से बचे थे अब बिना किसी अनबन के सदा के लिए खामोश हो जायेगे माँ तुम जबतक थी माँ मेरे महानगर के घर में भी एक गाँव किस्से कहानियों के साथ आबाद था माँ अब घर के दालान का इंतजार और वापसी में मेरे खाली हाथ
हाल की पोस्ट

जीवन यही है

तजुर्बा जब  खुद के कंधों से  खुद के ही कंधों को  सहारा देने की कला  सीखा जाता है  तो सफर बहुत आसान हो जाता है

पितृसत्ता

समंदर ने पानी उधार लिया है नदियों से जैसे उधार लेते हैं कुछ एक पिता बेटियों से उनकी संपत्ति और अधिकार के साथ चलाते हैं पितृसत्ता का साम्राज्य नदियाँ विलुप्त हो रही हैं समंदर को भविष्य की बंजरता  का आभास फिर भी नहीं हो रहा है

प्रिय

तुम कभी नहीं बन सके एक अच्छे प्रेमी पर एक बेहतरीन मार्गदर्शक जरूर बने तुम्हारा जटिल से जटिल राजनीति और अर्थशास्त्र का ज्ञान देख मैं हमेशा अचंभित रही पर मेरे ह्रदय में बसा कोमल और सरल प्यार तुम कभी समझ नहीं सके मजदूर के उदासी का रंग   अपनी क़लम में भरकर तुमने क्रांति लिखी पर मेरी आंखो में तैरता विरह का रंग तुम कभी पढ़ न सके

उनका जाना

एक जोड़ी जूते का  घर से चले जाना  मेरे बच्चे के लिए प्रश्नचिंह था  मेरे लिए निरुत्तर जीवन था समाज के लिए एक ऐसी खबर जो बिना अखबार रोज़ छपती रही मनोरंजन के बाजार में

काश

चांद और तारों की तमन्ना नहीं थी न ही फुलों के बगीचे की चाहत आना चाहते थे हम तुम्हारे ह्रदय में तुम्हारे ही कदमों के सफर से चाहत थी बस इतनी सी जहाँ छोड़ देती है छाव साथ मेरा तुम धाम लेते वहाँ काश हाथ मेरा जहाँ मै रुट जाती काश वहाँ तुम मौजूद होते............