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संदेश

पितृसत्ता

समंदर  ने  पानी उधार लिया है नदियों से जैसे उधार लेते हैं कुछ एक पिता बेटियों से उनकी संपत्ति और अधिकार के साथ चलाते हैं पितृसत्ता का साम्राज्य नदियाँ विलुप्त हो रही हैं समंदर को भविष्य की बंजरता  का आभास फिर भी नहीं हो रहा है
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उसका जाना तय था

मछलियां नहीं लौटती है पानी के पास कभी जाल में फंसने के पश्चात आदमी नहीं लौटता है जीवन के पास कभी मृत्यु को वरण करने के पश्चात इसलिए लौट आई थी वो उन सभी जगह पर हो सकता है उसका लौटना अंतिम बार हो क्यों कि उसका जाना तय था

इन्सानियत

पावस के दिनों में  कुएंँ में उडेली गगरी  क्षण भर में  अपनी भरी देह  लिए आती है लौट वे दिन प्यास से मर जाने के  नहीं तृप्ति के होते हैं  मोल नहीं खटकता  जीवन का तब  नजरअंदाज करते हैं हम  कितनी आदमियत बची है आदमी में वो तो तब खटकता है  जब सुख जाते हैं कुएँ  धरती तपती देह लेकर रोती हैं  मर जाती है पुतलियाँ मछलियों की  वे दिन होते हैं दुख के  और अतृप्ति के  और तब खटकती है इर्दगिर्द मौजूद आदमियों के भीतर बची है  कितने आदमीयत  उल्लास नहीं सताप परिभाषित करता है इंसानियत

दुर्दिन समय में

भले आप रोज ना लिखें  एक पन्ना कहानी का  एक पंक्ति कविता  एक अध्याय उपन्यास  पर नित्य जगाए रखना  आत्मा के भीतर बसा इंसान  क्योंकि इस दुर्दिंन समय में  कागज़ गिरवाये शब्दों से  अधिक जरूरी है,  दबती न्याय की पूकार पर तुम्हारा पेपरवेट बनना

सपने

बहुत से सपने मर जाते हैं मन के दराज़ के भीतर कुछ तो आत्मा से जुड़े होते हैं वहां पडे़ होते है शहरों के पत्ते नामों के साथ लगे सर्वनाम भी और ताउम्र इन सपनों के पार्थिव शरीर उठाये हम चलते हैं मृत्युशय्या पर हम अकेले नहीं हमारे साथ जलता हैं वो सब जिन्होंने ताउम्र जलाया होता है हमें बिना आग बिना जलावन के

यह भी एक सच हैं

प्रेमीकाएं उम्रदराज होने पर त्यागी जाती है और यह मरणासन्न पीड़ा होती है  एक औरत के लिए वो टोटल टोटल कर लेती है अपने देह का जायजा लटकते स्तनों में खीचाव लाने की करती है भरकस प्रयत्न या फिर सोचती है शायद देह ने त्याग दी है उष्मा अब वो नही तपा सकती है अपने प्रेमी की देह या ढीली पड़ती उसकी कमर  समेटने का करती है एकाएक प्रयास तभी दूर से आता एक काफीला जो शमशान की राह लेता चार काधें पर जाता  मृतदेह देख  वो अपने शरीर को छुते हुए बुदबुदाती है आत्मा के पहले मेरी देह चली गई शमशान पर उसी प्रेमी के कधें पर होकर  जिसने कभी कहा था तुम्हारी देह जीतनी बुढी होगी मेरा प्रेम उतना ही गहरा 🙏

एक कविता

चालाकियां ईमानदारी और धुर्तता संसार के रंगमंच पर प्रमुख भूमिकाएं निभा रही हैं इस जंग लगे समय में ईमानदारी बेमनियों के घर पानी भर रही है कुछ तथाकथित नरियाँ अपने मुलायम उंगलियों के स्पर्श से कामयाबी के कंधे छू रही हैं वहीं कुछ पुरुष वक्र दृष्टि से आधी आबादी की बुद्धि की तरफ कम देह की और अधिक आकर्षित होता जा रहा है साधु संतों के भेष के पीछे धर्म कम और मंक्कारी और वासनाओं का बाजार अधिक फल-फुल रहा है सूरज की पहली किरण के साथ सच माथें पर काली पट्टी बांधे झूठ के दरबार में झुक कर सलाम कर रहा है पर परिवर्तन के नियम से कोई नहीं बचा है ना धरा ना आसमान ना इंसान समय का पहियां अपनी रफ्तार पकड़ लेगा कुम्हार के चाक पर फिसलती अनावश्यक मिट्टी की भांति बेइमानिक का यह फलता फुलता बाजार अस्तित्वहीन होकर नष्ट होगा पुनरुत्थान की किरणों पर बैठ सच दतुरी मुस्कान के साथ मुस्कुरा उठेगा