विश्व कविता दिवस पर कविता एक कतरा उजाला टांक देती है अंधेरे के जेबें पर कविता करती हैं स्पर्श उस खारे पानी के जल को जो अन्नदाताओं के गमछें भिगो देता है कविता तुलसी का इन्तजार और चाँद के बेवफाई का किस्सा हैं कविता सरहदों से न लौटे उन्ह अपनों से बिछुड़े परिजनों के आंखों का सवाल हैं
अब कुछ दिन बोलने से बचना चाहता हूं मैं अब सुननी है सबकी ध्वनियाँ और सीखनी है बात के पीछे की असल बात इस कला को सीखे बिना मैं नहीं समझ सकता हुं दुनिया का यह बाजार पहाड़ के पीछे भी एक पहाड़ होता है नदी के नीचे भी एक नदी होती हैं वैसे ही मनुष्य के चेहरे के पीछे भी एक चेहरा होता है जुड़वां चेहरे का गणित सीखना है अभी बाकी खुली मुट्ठी सिर्फ भ्रम होता है उसके भीतर भी एक बंद मुट्ठी होती हैं बाजार इंद्रधनुष्य के रंगों का विज्ञापन छाप रहा है और सूरज के रोशनी को डिब्बे में भरकर बेचने का भ्रम पैदा कर रहा है और ऐसे समय में यदि मुझे अपने होने को बचाये रखना है तो कछुए के पैरों से भुमि को नापना होगा किनारे पर खड़े होकर अब बाजार का रुख़ समझना होगा