रविवार का दिन था। हर रविवार येल्लापुर में बाजार लगता। सुबह से ही बाजार में चलह कदमी होने लगी। सौदा बेचने वालों के चेहरे पर मुस्कान थी। नफा या नुकसान का भाव अभी तक चेहरे पर नहीं उभरा था। उभरेगा, सूरज के सिर पर चढ़ने तक। बीच सड़क पर टेंपो, ट्रक रुके थे, जो हुबली, गदग से सब्जियां, फल ,फूल लेकर आए थे। मजदूर बड़ी-बड़ी सब्जियों की टोकरी और गट्ठर ढो रहे थे। लंबे कद काठी वाले मजदूर बड़े-बड़े कदमों से रास्ता नाप रहे थे। वहीं छोटे कद वाले मजदूरों को देखकर लगता था वे आगे कम पीछे ज्यादा चल रहे हैं। मानो वहीं रुके - रुके से हों। इसी बीच आसपास के गांव से सब्जी फल लेकर आई औरतें सड़क किनारे सौदा बेचने के लिए जगह छेंकने लगीं। वहाँ एक तनातनी हमेशा मची रहती थी, बाहर से आकर व्यापार करने वाली औरतें और इसी शहर या फिर आसपास के गांव की औरतों के बीच। कभी-कभी मामला इतना बिगड़ जाता था कि क्लेश शुरू हो जाता और वे सड़क के बीचोबीच झोंटा पकड़कर या कपड़े फाड़ कर हंगामा करने लगती । मामला बिगड़ने पर बाजार के चौक का पुलिस आकर अ...
तुम चले गए हो और मेरे पास जो बचा है वो केवल गुजरे समय की एक समाधि है जिस पर रोज सुबह फुल विश्राम करते हैं और रात में अंतिम निद्रा में लीन हो जाते हैं और मेरे आंखों के जलाशय में रक्त वर्णी फुल फिर जन्म लेते हैं फिर मुरझा जाते हैं और कुछ इस तरह मेरा प्रेम संवाद से समाधि तक के महाप्रस्थान की ओर बढ़ रहा है