हर रात में लिखती हूं तुम्हारे पीठ पर मेरे एकांकी जीवन की व्यथा सदियाँ गुजर गई और गुजरती रहेंगे उस रात में तुम्हारा जाना तुम्हें बुद्ध बना गया और आज तुम्हारे पीठ पर मैं छोड़ रही हूं एक प्रश्न मेरा जाना बुध्द या युद्ध बन जाता या फिर तुम किसी अश्लील भाषा की तरह अपने सभ्य भाषा के संसार से मुझे त्यागकर महान बन जाते शायद जैसे मैं रोज आज की तारीख में त्यागी जा रही हूँ तुम हर उस जगह पर लौट आवोगे जहाँ तुम्हारी गाधाऐ गायी जायेगी पर तुम कभी नहीं लौटोगे मेरे विरह से तपती दुनिया में (अंतिम कविता इस सफर की)
सूखी नदी के देह पर उगी पपड़ीयां बयां करती हैं नदी के मिटने का इतिहास टूटे नावों के और अपाहिज पतवार के अवशेषों की कहानियां दर्ज नहीं होती है कभी ना ही प्यासे जानवरों की प्यास कोई विषय बन जाता है पर फरमान काटे जाते हैं उन तमाम मौसमों के नाम जिनके हाथों में हथकड़ी असंभव है और कलम की नोक से अदालत में बचाये जाते हैं रेत माफियाओं की गर्दनें विकास के नाम पर जहर उगलते कारखाने के मालिकों के बटवे पर नदी की सुखी पपडियो में दर्ज होते हैं उसके मिटने का एतिहास और सभ्यता से असभ्यता की ओर बडती अंधी पीडी का वर्तमान