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प्रारब्ध

बार बार  उसे  फेंका जाता है और ये सिलसिला गर्भ से शूरू  हुआ है पर वो औरत है कि हलक से तेजाब उतारकर पाषाण पर भी उग आती है धरकर सूरज को अपनी पीठ पर करती है वो नमक पैदा और भर देती  है स्वाद लेकिन किसी अपरिचित अनजान की भी कराह उसे कर जाती है विचलित।

कर दिया है तुम्हें मुक्त

मैं तुम्हे मुक्त कर रही हूँ इस रिश्ते की डोर से क्योंकि कई बार मैने महसूस किया है  तुम्हारी पीठ पर मेरे  अदृ्श्य बोझ को इन दिनों अधिक बढ़ गया है हम दोंनो के बीच  कदमों का फासला भी कोशिश करती हूँ  कह दूँ  तुम्हारे कानों में  वही प्रेम के मंत्र जो प्रथम मुलाकात में तुमने अनायास ही घोलें थे मेरे कानों  में और समा गये थे तुम मेरे रोम -रोम में मैं स्वार्थी तो थी ही पर थोड़ी बेफ़िक्र भी हो गई थी तुम्हारी चाहत मे दिन-रात तुम्हारे ही इर्द -गिर्द चाहती थी मौजुदगी  जब तुम तल्लीन हो जाते थे अपने कर्मो में मै रहती थी प्रयासरत अपनी मौजुदगी का एहसास  कराने को जब कभी पड़ता था  तुम्हारे माथें पर बल और सिमट जाती थी  ललाट की सीधी सपाट रेखाएं मैं रख देती थी धीरे से  तुम्हारे गम्भीर होंठो पर अपनी उंगलियों को मेरा रूठना तो सिर्फ इसलिए होता था कि मैं तैरती रहूँ तुम्हारे मनाने तक  तुम्हारी ही श्वास एवं प्रच्छवास की उन्नत होती तरंगों पर जिम्मेदारियों के चक्र में जब जम जाती थी थकावट की उमस भरी धूप और शिथिल पड़ जाती थी मैं तुम मुझे उभारते बिना हाथों का स्पर्श किये और रख़ देते थे मेरे कदमों के निचे एक तह हौंसले

क्षणिकाएं

१) अनगिनत वृक्ष दुनिया भर की अलमारियों में बैठे हैं मौन और दीमकें जता रही हैं उन पर अपना हक। २) संमदर में रोती हुई मछलीयां  सीप में रख देती हैं  अपने आंसूओं को  जो मोती बन चमकते हैं  धरती के गालों पर ३) हर पार्वती के हिस्से  नहीं होते शिव  फिर भी वो अर्द्धनारीश्वर के रूप में विचरती रहती है इस धरा पर ! ४) मैं तुम्हारे आंगन कि कृष्ण तुलसी बनकर  तुम्हारे ललाट पर स्थित  समस्त कठिन रेखाएं खींच कर  भस्म कर अपने देह के अंदर धर लूंगी ५) हम दोनों के प्रेम में स्थित अधूरापन तुम्हारे लौटने की परिभाषा है