सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जुलाई, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दुख जो बहा नहीं धरा पर

औरतों  के हिस्से जितना भी दु:ख आया  बहुत कम आँखों ने धरा को सौंपा और बहुत सा दुख आँखों के किनारें पर शहर बन बसा बदलते काल और परिवेश में पगडंडियों और जंगलों में खपती इन औरतों ने अपना दुःख रखा साथी औरतों के कानों में  पर सांत्वना के शब्दों के एवज़ में  सम दुख की भागीदारिनी ही मिली  वे रात में मिला दुःख  सुबह बुहारते हुए रख आयी  आंँगन के कोने में  और अधिक मात्रा में इकट्ठा होने पर  टोकरीं में भरकर  राख़ में तबदील कर आयी  नजदीक के किसी खेत में  हर परिवेश और हर स्थिति में  इन दुखों का मापन और रंग एक सा रहा  रेल में महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बें में  हजारों उतरती चढ़ती आँखों में  बसा रहा दुख का साम्राज्य  पर कभी काजल तो कभी काले चश्मे ने  यहाँ पहरेदारी अपने बजाई  एंकात की तलाश करते भीड़ में नजर आए कितने ही दुपट्टे के छोर कुछ औरतों ने अपना दुःख  अलमारी की उन साड़ियों की तह में सुरक्षित रखा जिसे मायके का पानी लगा था औरतों के हिस्से जितना भी दुःख आया  उजाले ने कम और अंँधियारे ने अधिक जिया।

एक ऐसा भी शहर

हर महानगरों के बीचो -बीच  ओवरपुल के नीचे  बसता है, एक शहर  रात में महंगे रोशनी में सोता है  सिर के नीचे तह करके  अंँधियारे का तंकिया  यहाँ चुल्हें पर पकती है आधी रोटी और आधी  इस शहर की धूल लोकतंत्र के चश्मे से नहीं दिखता यह शहर क्यों कि इनकी झोली में  होते हैं  इनके उम्र से भी अधिक  शहर बदलने के पते यह शहर कभी किसी जुलूस में  नहीं भाग लेता है ना ही रोटी कपड़े आवास की मांँग करता है  पर महानगरों के बीचो-बीच उगते ये अधनंगे  शहर हमारे जनगणना के खाते में दर्ज नही होते हैं पर न्याय के चौखट के बाहर नर या आदम का खेल खेलते अक्सर हमारे आँखों में खटकते है

प्रहर

मेरा एकांत  मेरे कमरे में छाये सन्नाटे का हिसाब  जब लगाता हैं  तब एक इतिहास  अपने पन्ने खोलकर  मेरे समक्ष आ जाता हैं  पर मेरी जिद होती हैं  वर्तमान के लोहे सम  कवच से मैं ढ़क दूँ उसके पन्ने और घास पर बैठी ओस की बूँदे भर लाऊँ अपनी अँजुरी में , और सींच दूँ फिर से  एक और नींव भविष्य की  तभी उस कमरे के  सन्नाटे को चीर जाती हैं  दीवार पर लगी घड़ी   संकेत देती हैं  प्रहर के गुजर जाने का।

बेटियाँ

बेटियों के जनने की खबरें  पहुंचाई जाती रही अब तक  मायुसी के कागज में लपेटकर  किसी मातम की तरह और जनने के तुरंत बाद  किया गया मरने इंतजार  या फिर मिटाने का इंतजाम  पर इन जिद्दी बेटियों ने  ना छोडी सांसे  ना कदमों की गति जब गाय की तरह  खुटीं बदलने की बारी आई  तो ये बेटियाँ  निकली अपने बाबा के घर से  बांधकर कुछ बीज  या फिर लेकर कुछ ज्ञान रोप दिये बीज उग आया धान पक गया मीठा चावल  धरती मुस्कुराए  अक्षरों को उड़ेला चहुँ ओर और मुस्कुराया उजाल

बारिशें

बहुत देर तक आज  सोई रही बारिश के कारण  ये बारिश भी अजीब है ना  मध्यरात्रि में जगा दिया  और सुबह होते -होते सुला दिया  ये बारिशें बिल्कुल  सुख और दुख  दर्द और पीड़ा  पाना और खोना  मिलन और विरह  खिलना और मुरझाना  नमी और प्यास    बिल्कुल ये बारिशें  ऐसी होती हैं  जैसे जीवन का कोई संत्र चल रहा हो...... 

कविता और कवि

कविता को मैं कोलाहल में से  उठाकर लेकर आती हूं और फिर कविता मुझे  एंकात में लेकर जाती हैं  कहीं बार शब्दों के पोशाक पर मैं अटक जाती हुं  फिर से कोलाहल के बाजारों से चुनकर लाती हूं कुछ मुलायम से कुछ मिर्च से  और पहना देती हूँ मेरी कविता को शब्दों का मैं पोशाक  जिव्हा लेती हैं उसका स्वाद  करती हैं कहीं क्रांति का आगा़ज और फिर अज्ञानता के कुँऐ का माप लेती हैं मेरी कविता  कुम्हार के बंजर पड़े चाक पर  फिसलती है मिट्टी बन मेरी कविता  या फिर बेरोजगारी को रोजगारी के नये मंत्र सीखा आती है मेरी कविता कविता को मैं कोलाहल में से  उठाकर लेकर आती हूं और  कविता मुझे एकांत में लेकर जाती हैं

और कितना?

तुम मुझे हमेशा   स्वीकार और अस्वीकार के मध्य रखते आए हो  तुमने मुझे हमेशा  मिलना और बिछड़ना  इसी के मध्य रखा है  तुम मुझे हमेशा  कपाल पर उभरी लकिंर और होठों पर उभरी मुस्कान के बीच रखते आये हो तुम्हारे लिए मैं केवल एक सामान सी बन गयी हूँ अब तो या फिर कोई मौसम  मेरी संवेदनाएं है ठेस मुझे भी लगती है रक्त सम आँसू और कितने बहा दूं मै या फिर असहनीय दु:ख को जो बार- बार मेरे हिस्से तुम लिख रहे हो उससे आज छुटकारा पा लू?  रोज होते छलनी मन को बस एक जख्म देकर अनंत काल तक इस पिडा के उपहार को जीवन भर आ मैं अपने ह्रदय में सजा लूं 

पिता

पिता ना  के बराबर आए पिता मेरे हिस्से में मेरे उच्चारण के दौरान भी  बहुत कम सुख भोगा  मेरी जिह्वा ने इस शब्द का  मेरे लड़खड़ाते कदमों के दौरान भी कभी नहीं मिला मेरी नाजुक हथेलियों को  पिता की उँगलियों का भी स्पर्श मेरी वापसी में मैंने कभी  नहीं देखा पिता की आँखों में  अपनी वापसी के लिए इंतजार का तैरता कोई भाव  आज उम्र के इस पड़ाव पर  आकर जब मैं ढूँढती हूंँ  अलमारियों में या फिर किसी कोनें में एक भी चीज़  नहीं मिलती हैं यादों में भी  जो मेरे लिए पिता लेकर आए थे  किसी यात्रा से लौटते समय अब मेरी जिह्वा भी अभ्यस्त नहीं है  इस नाम के उच्चारण की पर मेरी धमनियों में गूँजता रहता है यह शब्द निरतंर ।