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जब वह औरत मरी थी



जब वह औरत मरी

तो रोने वाले ना के बराबर थे 

जो थे वे बहुत दूर थे 

खामोशी से श्मशान पर 

आग जली और 

रात की नीरवता में 

अंधियारे से बतयाती बुझ गई 


कमरे में झांकने से मिल गई थी

कुछ सुखी कलियां 

जो फूल होने से बचाई गई थी 

जैसे बसंत को रोक रही थी वो

कुछ डायरियों के पन्नों पर

नदी सूखी गई थी 

तो कहीं पर यातनाओं का

वह पहाड़ था जहां

उसके समस्त जीवन के

पीडा़वों के वो पत्थर थे

जिसे ढोते ढो़ते- ढ़ोते

उसकी पीठ रक्त उकेर गई थी


कुछ पुराने खत जिस पर 

नमक जम गया था 

डाकिया अब राह भूल गया था

मरने के बाद उस औरत ने 

बहुत कुछ पीछे छोड़ा था 

पर उसे देखने के लिए 

जिन नजरों की  आज

जरूरत थी 

उसी ने नजरें फेर ली थी 

इसीलिए तो उस औरत ने 

आँखे समय के पहले ही मुद ली थी ।

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