बेमतलब के किताबों की भरमार उगते नन्हे पौधे को बहुत डराती है जैसे दरबार में बैठकर किसी कवि का लिखना प्रजा को डराता है जैसे किसी सलाखों के पिछे कलम का दम तोडना डराता है आजादी को जैसे चाटुकारिता से कमाये पुरस्कार डराते हैं योग्यता के परिभाषित व्यक्ति को हा यह समय बहुत डरावना है सच की कमीज़ पर झूठ की जेब सिलाई का डराता हुआ समय है ये