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जून, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रतिक्षाऐं

प्रतिक्षाऐं  रेत की तरह फिस लती हैं आँखों में घड़ी की सुई की तरह चुंभती हैं घने बर्फबारी के बीच प्रतिक्षाओं के क्षण दावाग्नी के कण बन तपिश पैदा करते हैं प्रतिक्षाऐं हथेलियों पर नमक की खेती करके यादों के फसल कांटती हैं प्रतिक्षाऐं अनादि काल से ओसरे पर बैठे बूढ़ी माई जैसी बनने पर उस जगह से उठने का संकेत देती हैं प्रतिक्षाऐं सफल रही तो अर्थ है नहीं व्यर्थ हैं

यह कितना सही है

उसने मेरी भूख पर  लिखी कविता खारिज कर दी  यह कहते हुए  इस शब्द का सरकारी बहिखाते में  कोई अस्तित्व नहीं बचा है  इसलिए अब सरकार  भूख यह शब्द  शब्दकोष से हटाने वाली है  और इस शब्द को अब  चुनावी घोषणा पत्र में  शामिल किया जाएगा

यह समय

बेमतलब के किताबों की भरमार  उगते नन्हे पौधे को बहुत डराती  है जैसे दरबार में बैठकर किसी कवि का लिखना प्रजा को डराता है जैसे किसी सलाखों के पिछे कलम का दम तोडना डराता है आजादी को जैसे चाटुकारिता से कमाये पुरस्कार डराते हैं योग्यता के परिभाषित व्यक्ति को हा यह समय बहुत डरावना है सच की कमीज़ पर झूठ की जेब सिलाई का डराता हुआ समय है ये

स्त्रियाँ

स्त्रियाँ चखी  जाती हैं  किसी व्यंजन की तरह  उन्हें उछाला जाता है  हवा में किसी सिक्के की तरह  उन्हें परखा जाता है  किसी वस्तु की तरह  उन्हें आजमाया जाता है  किसी जडीबुटी की तरह उन्हें बसाया जाता है  किसी शहर की तरह  और खाली हाथ लौटया जाता है  किसी भिक्षूणी की तरह  पर आने वाली संभावनाओं की  बारिश में उगेंगे कुछ ऐसी स्रियाँ   जो हवा में उछाले सिक्के को  अपने हथेलियों पर धरकर मन के अनुसार उस सिक्के का  हिसाब तय करेगी 

जिस रात एक औरत रोती है

रात के सीने पर जब जब बहता है  किसी औरत का काज़ल तब तब धरती के गर्भ में स्थित बीज डऱता है पल्लवित होने से किसी डाल पर सुस्ताती चिड़िया के  कान में आंगन से उड़ी कपास रख़ देती है एक चीख़ जो अभी अभी दरवाजे को चीरती सन्नांटे में विलीन हो गयी है और उस रात वृक्ष की जड़  सीचीं जाती है खारे पानी की धार से देवी के मंदिर में लगी घंटियां  लौटा देती है  कुछ एक प्रार्थनाओं  को जिस रात औरत बुदबुदाती है अनगिनत नाकाम इच्छाओं को कानून के घरों में बैठे इंसाफ के दस्तावेज़  हिलने लगते हैं  आधी आबादी के आंसुओं के ज्वार से   जब औरत रोती हैं तो  आसमान में चांद को भी  बेमानी सी लगती है  अपनी चांदनी  और ढक लेता है वो अपने तन को  बादलों की आड़ में  जब जब एक औरत रोती हैं  असभ्यता  सिंहासन  की तरफ एक कदम बढ़ाती हैं  और सभ्यता बैसाखी़ की ओर मुड़ जाती है

नाक

मालिक ने छीन लिया था उस दिन भरी बरसात में  पहरेदार का छाता  और कहा हट जाकर  खड़ा हो जा बाजू में निकल न सकी कोई भी आवाज  उसके मुख से आंखों से उसने अपना विरोध जताया  मालिक के अंहकार ने फन फैलाया आंख दिखाता है तू मुझको नाक भी लंबी हो गई है तेरी  उस गीली बरसात में  पहरेदार का दर्द उसकी आँखों से आँसू बन  छलक पड़ा अंतस का रोष थंडी बरसात पर भारी पड गया  उस दिन उसने मालिक को श्रेष्ठंता के सिहांसन से  उतारते हुए  कहा साहेब और कितना  हटूँ मैं बाजू में मेरे बाप दादा रहा करते थे पैरों तले आपके और बरसों से मैं भी रहा हूँ आपके बाजू में  आपके अलीशान केबिन का  खुलते ही दरवाजा मैं ही होता हूं हमेशा से बाजू मे हां पर! एक वादा है साहेब मेरा आपसे  मेरे जैसे खड़ी नहीं होगी  मेरी अगली पीढ़ी आपके बाजू में बल्कि वह खड़ी होगी आपकी आने वाली पीढियो के  बिल्कुल समक्ष नाक तो है ही नहीं  फिर वह लंबी होगी कहां से साहेब बचपन में ही मां ने ही रख दी थी  काटकर जेब में जो आज भी वहीं पर है सुरक्षित रईसों के फेंके हुए  कपड़ों में बने खीसों में बाकी मेरे जैसे  साथियों की नाक  कटती गई है धीरे धीरे पर मैंने पहले से ही अपनी ना

पाषाण पर उगती औरत

बार बार  उसे  फेंका गया है और ये सिलसिला गर्भ से शूरू  हुआ है पर वो औरत है कि हलक से तेजाब उतारकर पाषाण पर भी उग आती हैं धरकर सूरज को अपनी पीठ पर करती है वो नमक पैदा और भर देती  है स्वाद लेकिन किसी अपरिचित अनजान की भी कराह उसे कर जाती है विचलित।

क्षणिकाएँ

१. प्रतिक्षाएं रेत की तरह बह गयी गुनाह कुछ नहीं था बस खामोशी आडे़ आ गयी २. जिम्मेदारीयों ने हमेशा मुझे भीड़ से अलग रखा और आत्मविश्वास ने मुझे कभी खोने नहीं दिया ३. मेरी वफा़ की कोई किमत नही थी तुम्हारी नजरों में पर तुम्हारी बेवफाई की किमत मेरी आंखें चूका रही है निरतंर ४. भीड़ में भी अकेले है हम पर अकेले ही कारवां बना लेते हैं हम

रोटी और कविता

गुम हो गई अनगिनत कविताएँ रोटी की खोज में कही सडकें कही बियाबान पार करते हुएं मुझे धरती भी छोटी लगी पैरों के उंगलियाँ में कही कही शहरों की धसी मिट्टी बन सकती थी एक कहानि पर हर नये शहर में हम सिक्के की खोज़ में ही निकलते रहे मैने पढ़े कही कही चेहरे जो पसीने से लधपध थे इतनीभर फुर्सत नहीं थी उन्हें श्रम के पानी को हथेलियां नसीब कर सके और मेरे हिस्से की जमीन इतनी पथरीली और पाषाणी थी कि मेरे हाथ कलम तक पहुचे ही नहीं जहाँ पर एकट्टा कर सकती थी मै ये सर्घष की सीधी तिरछी रेखाएँ और रच सकती एक उपन्यास