जहाँ जन्मी तु, शब्दों को बोली मिली खोल के पंख मैने,बगिया में फूल खिली । तुलसी लगाई मैंने पिता के अॉगन में जल अरपण किया पति के प्रागंण में, जब जब तेरे उदर में अंश पला पति का वंश बढा पर बाझपन का भार तुने ही ढोया । अरपीत कर तुम जीवन अपना, सोच रही क्या पाया , क्या खोया । दरवाजे पे मेरे नाम का तख्त न हुआ, फिर भी पूरा जीवन इसी बेनाम घर को दिया । डाकिया कभी उसको ढूंढ कर नहीं आता, फिर भी हमको उसका , इन्तजार रहता । अनगिनत किरदारो में जीती हुँ मैं , हर किरदार में किरायेदार रहती मै ।