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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जहाँ जन्मी तू

जहाँ जन्मी तु, शब्दों को बोली मिली खोल के पंख मैने,बगिया में फूल खिली । तुलसी लगाई मैंने पिता के अॉगन में जल अरपण किया पति के  प्रागंण में, जब जब तेरे उदर में अंश पला पति का वंश बढा  पर बाझपन का भार तुने  ही ढोया । अरपीत कर तुम जीवन अपना, सोच रही क्या पाया , क्या खोया । दरवाजे पे मेरे नाम का  तख्त न हुआ, फिर भी पूरा जीवन इसी  बेनाम घर को दिया । डाकिया कभी उसको ढूंढ कर नहीं आता, फिर भी हमको उसका , इन्तजार रहता । अनगिनत किरदारो में जीती  हुँ मैं , हर किरदार में किरायेदार  रहती मै ।

सम्मान का सिंदूर

उन्ह बदनाम गलियों में रोज शाम खडी होती है मजबुरी तलाशती है चुल्हे की आग गली के चौराहे पर खड़ी हो जाने से पहले वो खड़ी हो जाती है आईने के सामने लेकर अपना  जख्मी देह तथा रक्तरंजित मन करता है आईना भी कभी कभी बेईमानी दिखता है उस औरत को आवरण के पीछे का अश्क  वो मुँद लेती है आँखे और तलाशती है खुद को तभी समय का काँटा चुभ जाता है आँखो में प्रहरा कर जाता है आंतो पे आँखो को खोलकर  बंद करती है काजल से वो मार्ग जहाँ से अभी अभी उसने की थी कोशीश खुद को तलाशने की ग्राहक उसके होंठो को रोज रंगाता है कालिख से रोज वो उसे लेप देती है पिढा की लाली से वो सजाती है अपने माधे प्रेम रहित लाल बिंदी और तलाशती है रोज खाली डिब्बीं में थोडा सिदूंर सम्मान का

मछली बाजार की औरतें

मछली बाजार की औरतें  जब भी मैं  जाती हूँ मछली बाजार  एक आदत सी बनी है उन औरतों को निहारती हूँ  देखती हूँ मछली बेचने का कौशल  पल में सोचती हूँ  चंद पैसों के लिए  सुबह से शाम लगाती  हांक ये बैठती हैं ये  बाजार में  मैं सोचती हूँ  अगर ये न होती  इनके मर्दो की सारी मेहनत  सड़ जाती गल जाती  जो अभी है समंदर के लहरों से लड़ता हुआ  लाने को नाव भर  मछलियां  एक मछली वाली है इन्हीं में  सूनी है जिसकी कलाई मांग भी सूना है  गांव की तिरस्कृत पगडंडी की तरह  चेहरा थोड़ा काला कुरूप सा लेकिन मेहनत के  रंग से  दीप्त  उसके  श्रम को सलाम है मेरा जिसका  पुरूष समंदर से लड़ते हुए  लौटा नहीं कभी लेकर मछलियां  मेरे सामने से  गुजरते हैं हजारों चेहरे  नित्य केशों में सफेद फूल बांधते  नथनी , बिंदी  और पायल से सजी   और  स्निग्धता से  भरी ये मछली  बेचती  औरतें  हर रात अपना श्रंगार  समंदर के लहरों के भरोसे ही तो करती होंगी  जिन पर सवार हो उनके पुरूष  समंदर की गहराई में ढूंढते हैं भूख का हल मछली के रूप में  भरी टोकरी मछली बार बार उदास करती है उसे  और कमर पर खुँसी  पैसे के बटुए को देखती हैं  कनखी से  समंदर से टोकरी  और

आवो कुछ क्षण के लिए

आओ तुम कुछ क्षण के लिए  वहीं जायेगे कुछ पल के लिए मिलीं थीं जहाँ नजरों से नजरें एहसासों का हुआ था प्रथम मिलन हुआ था जहाँ से भविष्य के सपनों का संचरण ज़रा सा भी व्यथित ना होना तुम लौट जाना फिर से अपनी दुनियां में  साथी आज अन्तर हो चुका है   भूत और वर्तमान के बीच लोग ढूंढेगे उन पत्तो में  तुम्हारे दबे हुए कदमों को खोजेंगे समीर के बीच घुली हुई आवाजों को फिजाओं के उन फुलों में बसी हुई हमारी महक को और सावन की फुहारों मे   हमारा स्पर्श ढूंढेंगे आओ कुछ क्षण के लिए  तुम वहीं जायेगे  जहाँ से बिछड़े थे हम तुमसे हमेशा हमेशा के लिए....

दर्ज होंगे वो जख्म

दर्ज होंगे वो जख्म इतिहास के पन्नों पर दर्ज होंगे ये तमाम जख्म हिम की  घाटियों में जिस दिन  ऋषियों के कमंडल में पापियों ने खून भर दिया था उसी दिन मेरे देश का एक अंग सुन्न हो गया था दर्ज होंगे इतिहास के पन्नों पर सफेद भू पर रक्तवर्णी कमल जिस दिन एक नारी ने  बलात्कार के बाद अपवित्र करार दी गई देह.को प्रतिशोध की अग्नि में  जलाकर भस्म कर दिया था  उसी दिन धरती की बाँझ होने की प्रक्रिया आंरभ  हुई थी दर्ज होंगी इतिहास के पन्नों पर वो गीली चीखें आंसुओं से भरी जिस साल बीज बहे थे जलधारा में गद्दी पर बैठे राजा ने आश्वासनों को बांधकर  भेजा था कागज़ में जो मौसम की मार खाते-खाते किसानों तक पहुँचते - पहुँचते बह गया  लालच के तूफान में जब मुआवज़े की रकम को लिखते-लिखते टूट गई थी सरकारी बाबू की कलम दर्ज होंगे इतिहास के पन्नों पर चमगादड़ बन लटके किसानों की लाशें दर्ज हो जायेगी वो घटनाएँ जहाँ सवाल गूंगा बना था जवाब चाटुकारिता करते-करते गधों के पैरों में लेट गया था दर्ज  होगी वो रकम भी जो संसद की दीवारों की मरम्मत के लिए लगी थी कहा जाता है उस समय सबसे ज्यादा संसद की

क्षणिकाएं

१ नदी को समझने के लिए  पानी होना पड़ता है  और नदी किसी से  उम्मीद नहीं करती हैं   ठीक उसी तरह   छोडें हुये किनारों पर  नदी वापस नहीं लौटती हैं २ धूप सूखाने डाली थी मैंने पर  मेरा गीला मन आसमान पे जा बैठा ३ मै ढोतीं हूँ अपने हिस्सें की धूप,अपनी पीठ पर बाँधती हूँ थोडा सा संमदर अपने आँचल में हौंसले की रेत अपनी मुट्ठी में और उठाती हूँ, आसमान अपने कधों पर ।। ४ मौसम के बदलने का  फर्क वहां नहीं पड़ता जहां तन्हाई बड़ी शिद्दत से साथ निभाती हो ५ यात्रा मेरी जीवन सी, मिली अवेहलना हर्ष-दुत्कार सभी स्त्री  जीवन है ही ऐसी हर भाव मुझे स्विकार अभी

बूढ़ा वृक्ष

मोचीराम हाट के शोरगुल बीच सदियों से  खड़ा मैला कुचैला खुरदरा वो बूढ़ा वृक्ष न जाने आँखो में  है किसका इंतजार नित लौटती  दूर तक जाकर उसकी निगाहें  निराश मन से निहारता वो मटमैले पैरों पे पुराना पर  आज भी जीवित मोचीराम का खुरदरा स्पर्श पहली बार जिस दिन ठोकी  गयी थी उसपर मोटी सी कील लटकाने थैली  क्रोध से बड़बड़ाया था वो बूढ़ा वृक्ष  मोचीराम नित थैली लटकाता नित औजा़र सजाता न लटकती जिस दिन थैली  वो दिन बडा़ उमस भरा गुजरता पुराने नये कितने ही जूते जितनी सलवटें होती थी चेहरे पर दरारें भी उतनी ही  जूते में नजर आती थी क्षण भर में उग आते थे जूतों के अनगिन चेहरे मोचीराम के हाथ  काले पीले लाल मिट्टी से सने हुए काँटों से छीले गरमी से झुलसे पत्थरों ने टोंके से  बरसात ने भिंगोए असमय टूट से चलते चलते मालिक से रूठे से  जूते हाथ में लेता नब्ज़ पकड़ कर दाम बताता कर्म में फिर से रत हो जाता  यदा कदा सिक्कों की खनक से खुरदरे हाथों में मुलायम एहसास होता जब चढ़ते जूते फरमा पर   मोचीराम के हाथ पहचान जाता जूते का दर्द शामिल हो जाती थी उसकी पीड़ा  उनकी पीड़ा में उसकी जड़ तले ही बनता था जूतों की पीड़ा का मरहम  कभी

युद्ध

युद्ध युद्धों की रणनीतियाँ  तय की जाती रही हैं हमेशा से  ऊँचे आसनों पे बैठकर  युद्ध के नाम से जितनी डरती है एक माँ  उतना नहीं डरता एक राजा  मां भेजती है  रणभूमि में  अपने नसों में बहता हुआ  लहू  और राजा केवल भेजता है  औजारों से लैस एक सैनिक  किसी सैनिक की शहादत पर क्रंदन की ध्वनि से  नहीं विचलित होता है  राजा उसे तो सिंहासन के डावांडोल की ध्वनि भूगर्भ  में  उठते भूकंप सी लगती है राजा के लिए मृत सैनिक  मात्र गिनती के अंक बनकर रह जाते और अख़बारों के पन्नों के लिए  महज एक ख़बर ठीक उसी जगह छपी होती है  जहां पर पिछले दिनों  छपी थी खबर  मंत्रियों के सुरक्षा इंतजामों की ।

कुर्सी

कुछ लोग कुर्सी के उपर बैठे हैं कुछ लोग कुर्सी के नीचे बैठे हैं कुछ लोगों ने कुर्सी को घेर रखा है कुछ लोग उचककर बस कुर्सी को  ताक रहे हैं और एक भीड़ ऐसी भी है जिसने कभी कुर्सी देखी ही नहीं है पर कुर्सी के ढांचे में जो कील ठोकी गई है वो इसी भिड़ के पसीने का लोहा है  देखना है भीड़ कुर्सी को कब देखेगी  जब कुर्सी से कील अलग हो जाएगी तब या  जब इस कुर्सी पे बैठे व्यक्ति का जमीर जाग जायेगा

इतवार

इतवार अपने रथ के पहियों में  वायुतंरगो के कण पिरोकर रफ़्तार के सिंहासन पर बैठ तेज़ भागते महानगरों की गती धीमी करने का साहस अपने पास रखता है इतवार एक ऐसा ही इतवार उग आया था मेरी खिड़की में कई दिनों बाद देखा था मैंने दूधवाले का चेहरा उजाले में अन्य दिनों की तरह ही यन्त्रवत सड़क आज भी दिख रही थी  पूर्व की भांति परन्तु आज दिख रहे थे  उसमें तन पर उभरे हुए छाले खिड़की के माथे से बह उठी तभी जल की धाराएं मैंने अपनी आंखों के रुख को मोड़ने की कोशिश की ताकि देख सकूं मैं  पानी की जन्मस्थली को और इस कोशिश में  छिल गई मेरी आंखें भीतर तक टीन के छतों पर गिरती  बुंदों की करर्कश ध्वनि  मार रही थी लगातार हथौड़े मेरी वृद्ध मां के कानों में खिड़की को बंद कर जैसे ही मैं पलटी मैंने देखा  मां की आंखों में  उग आई हरी घास की कुछ पातें जिनसे झर रहे थे  टूटा हल बंजर खेत-खलियान बनकर ।

हमें मंजूर है

हमें मंजूर है सीप बनकर रेत में दफन होना शर्त फकत इतनी सी है तुम मोती बन चमको हमें मंजूर है बीज बन मिट्टी में दफन होना शर्त फकत इतनी सी है तुम फूल बन महकना हमें मंजूर है मेघ  बन पानी में घुल जाना शर्त फकत इतनी सी है तुम वृक्ष  बन लहलहाना हमें मंजूर है सूखे  पत्ते बन धरा पर बिछ जाना शर्त फकत इतनी सी है उस राह से तुम गुजरना हमें मंजूर है तेरे लिये स्वर्ग  कि तलाश मे मर जाना शर्त फकत इतनी सी है उसे मुक्कमल न तू करना

बारूदी रंग

जब से ढूँढ़े जाने लगे हल बारूद की बोरियों में तब से किसानों के हल को चाटना शुरू कर दिया दीमकों ने जब से बारूद के कारखाने के मालिकों के जूते साफ करने गाँवों से किसान आने लगे तब से बोरियों की आँतें सिकुड़ने लगीं जब से आने लगीं  किसानों की रेज़गारियाँ बारूदी कारखानों से तब से गायब है मिट्टी की गंध धरतीपुत्रों की मुट्ठियों से जब से बादलों ने सुनी है  लुप्त होती बैलों की घंटियाँ  और बारूदी गोलियों की कथा तब से बूँदों ने सुनायी है खेतों से बालियों के बिछड़ने की व्यथा जब से बारूदी रँग  वसुंधरा के सीने पर जम गया है  तब से लुप्त होता जा रहा है मेरे पूर्वजों की सभ्यता का रँग

मानदंड

मानदंड पत्तों का पेड़ पर से गिरना  हरबार उसकी उम्र का  पूरा हो जाना नहीं होता कभी कभी ये तूफानों  की साज़िशे भी होती है सुहागिनों के मांग में सजा सिंदूर हरबार उसके प्रेम की तलाश का  पूरा होना नहीं होता कभी कभी ये झूठे मानदंड का वहन मात्र होता है कलम से बहती स्याही हरबार लिखाई भर नहीं होती कभी कभी लहू भी होता है औरत के पीठ का जिसके हंसने मात्र से उगा लाल रंग का निशान सागर के तलहटी में स्थित सीप हर बार मोती ही पोषित नहीं करता कभी कभी उसके अंदर दफ्न होता है नाकामयाबी का बांझ सा एक अंधियारा। 

एक औरत की पीड़ा

एक औरत की पीड़ा वह औरत थी उसकी वो जब चाहता था अपनी मर्ज़ी से उसे अलगनी पर से उतारता इस्तेमाल करता और फिर वहीं रख देता  फिर आता  और उसे उतारकर भोगता जितनी बार उसे उतारा जाता टूट जाती उसके शरीर की एक नस  नज़र आता चमड़ी से बहता हुआ कुछ लहू  जितनी बार उसे उतारा जाता उसके नाखूनों से  भूमि कुरेदी जाती कुरेदी गई धरती का प्रत्येक निशान जन्म देता था  कुछ जलते हुए सवालों को उसकी आँखो का खारा पानी सूखकर जम जाता था  उसके रिसते घाव पे उसके लड़ख़डा़ते पैर, उसका रक्तरंजित मन, उसकी लाचारी, एवं उसकी बेबसी, छोड़ जाती थी  उन तमाम पुरूषों के लिये एक अनुत्तरित सवाल जिसका जवाब खोजना अभी भी शेष है क्या औरत केवल एक देह मात्र है ??