सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अक्तूबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्षणिकाएं

१. बेलपत्र पर जब मैं तुम्हारी प्रतिक्षा लिखकर महादेव को अर्पण कर रही थी ठीक उसी समय दूर किसी वृक्ष पर एक चिड़िया मिलन के बाद बिच्छड़ने का गम गा रही थी । २. मुझे बिहड़ में बिठाकर मेरे सपनें मलबें में तब्दील कर तुम चाहते हो मेरी कलम से रंगीन तितलियों की उन्मुक्त उड़ान मैं लिखूं ? ३. कागज पर उतारी कविता दुनिया पढ़ती है पर पूर्णवीराम के बाद कलम जो बिंदू उकेरती है उसमें मेरे जीवन का सफर होता है जिसे केवल तुम पढ़ सकते हो ४. कुछ ने चाहा  मैं खामोश रहूं मैं खामोश रही पर मेरी कलम गुस्ताख़ी कर गयी ।

वापसी

              रात के दो बज रहे थे, फिर भी किस की यह मजाल है! कि इस महानगर की देह  पर थोड़ी ही देर के लिए सही सन्नाटा  पसरा दे । बस स्टैंड के बाहर की सड़क पर  भारी भरकम ट्रकों की आवाजाही शुरू थी ‌।  सड़क दबकर उसकी सांसें भले ही फुल जाये पर वह चीख नहीं सकती  उसका चिखना मानो उसके नियम के विरुद्ध होगा वह सड़क थी !उसे तो सबको ढोना होगा बिल्कुल वैसी ही कुछ चीखें इस समय मेघना के मन मस्तिष्क में उठ रही थी ,पर उनके ध्वनि पर  अंकुश लगाना भी  जरूरी था ।                      पिछले तीन घंटे से वो यहां बैंठी  थी । कितने ही मुसाफिर उसके बगल में बैठकर चले गए पर मेघना के पैर अपने आशियाने की तरफ नहीं उठ रहे थे । चारों तरफ लोगों का शोर पर उन सबसे मेघना उतनी ही बेखबर थी ! जितनी उसके इर्द-गिर्द की भीड़ मेघना से  ! यहां मतलब के बिना कोई किसी पर एक क्षण भी खर्च नहीं करता है । मुर्दें को भी तब तक पूछा नहीं जाएगा जब तक वो अपने शरीर को गलाकर उसकी बदबू किसी के नाक में नहीं जमा करेगा । यही हाल है हर महानगरों का मेघना का मोबाइल बज उठा उसे उसने वैसे ही बजता छोड़ दिया और वो चलने लगी ।                 राह वहीं  इर्द

समर्पण का गणित

समर्पण का गणित हमेशा मेरे हिस्से ही क्यों ? क्यों तुम्हें लगा  बच्चों के नाम की बेडियां मेरे पैरों में डालकर स्वच्छंदता से तुम विचरते रहोगे  बाजार समझ मकान में लौटोगे जिसे घर बनाया मैंने संघर्ष की तपती रेत पर चलकर नहीं वे दिन कब के बीत गए मंगलसूत्र का एक धागा मांग में मौजूद थोड़ा सा सिंदूर  गर्भ में रचा तुम्हारा अंश  प्रमाण नहीं बनेंगे अब  तुम्हारे स्वामित्व का  तुम बेफिक्र घूमते रहे   समाज ने दी सिख लेकर औरत मां बनने के पश्चात  दहलीज पार नहीं कर सकती  पर अब बदलनी होगी  इस सिख की परिभाषा  अब रोपनी होगी मुझे ही भविष्य के नवनिर्माण की अभिलाषा

बिंदी

चाँद भी होता है गोल जो अनगिनत तारों का प्रेमी हैं सूरज भी होता है गोल जो हर दम धरा को करता है साराबोर पानी की   बुँदे भी होती हैं गोल जो नवजीवन से सृष्टि को करती हैं अंकुरित आंखों की पुतलियों के गोल में चाहे अनचाहे भाव छुपे होते हैं मेरी गोल गुलाबी बिंदी में बसा हुआ है सौंदर्य का अतिरेक मानो वह बिंदी नहीं पूरे हो ब्रह्मांड का विस्तार उसमें भरी हुई हैं संस्कृति और वह प्रतीक है मेरे सम्मान और स्वाभिमान का बिंदी में एक नहीं कहीं भाव छुपे हुए हैं प्यार का प्रतीक बनके यह बिंदी उभरते हैं कभी करती निज समर्पणा अनगिनत सांसें समायीं हैं इस बिंदी में

दिन -2

नवरात्रि के नौ दिन नौ कविताएं -  दिन 2 मंदिरों में सजाया गया मुझे  पर क्या घर आंगन में  उतनी ही सहजता से  क्या स्वीकारा गया है  मुझे  गर्भ से लेकर श्मशान तक  कितनी कठिनाइयों को झेला  पर इस रोष में कभी  संसद पर ताला चढ़ाया है तूने ?  देवालयों के गर्भगृह में  सदा कीमती परिधानों से ढकी रही पर धूल ,मिट्टी कूड़े  के बीच  अपनी संतति की भूख बिनती  कात्यायनी के फटे वस्त्रो को  कभी  निहारा है तूने ? नहीं ना  तो सुनो  मैंने उन तमाम दहलीज को लांघा हैं जहां मैं मूर्तियों में रची बसी गयी अब मैं रहती हूं उस अस्मिता के पीठ पर छांव बन जहां झुलसती है रोटी  उन बिस्तरों के सिलवटों  पर  जहां औरत देह समझ नोची जाती है  मैं बसती हूं उस कपाल के मध्य  जहां बिंदी नहीं पसीना थकान बन बहता है

नौ दिन नौ कविताएं

दिन 1 समाज ने उसी  सीप में बसा  अंधेरा ही बहाल करना चाहा  पर वो हर बार मोती बन उभरती गई उसके लिए तुम सब ने  बिना जल के कुएं की खुदाई की  पर वो वहां से भी सरिता बन बही लोहे का घुंघट उसके माथे रख छोड़ा  उसी लोहे को पिघला कर  उसने भविष्य का रास्ता बना दिया  उसकी बेड़ियों को तो खोल दिया  उसके पंखों को बांध दिया पर उसके मन की गति तुम जान न सके हर युग में तुम ग़लत हिसाब कर गये ये वही रमणि है जो अपने सांस के भीतर और एक सांस लेकर चलने का सामर्थ्य रखती है

बेव़फाई

प्रेम हमेशा परोसा गया मुझे  अपमान की थाली में  आसमान की तरफ इशारा करके  मेरे पंखों को कसके पकड़ा गया  मेरी हथेलियों पर नमक रोपकर  मुझे मुस्कुराने की हिदायत दी गई  तरसती रही प्रेमी की एक आवाज के लिए  अनगिनत मौसमों के बीतने के बावजूद भी  बंजर भूमि मै  तब्दील होती गई हर उत्सवों ,त्यौहारों में मैं  तुम सब के बेवफाई का  बोझ अकेले ढो़ती गयी  धीरे-धीरे अपनी  उम्मीदों ,सपनों और श्रंगार को  अपने तन-मन से उतारती गई ह