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नवंबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यह भी एक सच हैं

प्रेमीकाएं उम्रदराज होने पर त्यागी जाती है और यह मरणासन्न पीड़ा होती है  एक औरत के लिए वो टोटल टोटल कर लेती है अपने देह का जायजा लटकते स्तनों में खीचाव लाने की करती है भरकस प्रयत्न या फिर सोचती है शायद देह ने त्याग दी है उष्मा अब वो नही तपा सकती है अपने प्रेमी की देह या ढीली पड़ती उसकी कमर  समेटने का करती है एकाएक प्रयास तभी दूर से आता एक काफीला जो शमशान की राह लेता चार काधें पर जाता  मृतदेह देख  वो अपने शरीर को छुते हुए बुदबुदाती है आत्मा के पहले मेरी देह चली गई शमशान पर उसी प्रेमी के कधें पर होकर  जिसने कभी कहा था तुम्हारी देह जीतनी बुढी होगी मेरा प्रेम उतना ही गहरा 🙏

एक कविता

चालाकियां ईमानदारी और धुर्तता संसार के रंगमंच पर प्रमुख भूमिकाएं निभा रही हैं इस जंग लगे समय में ईमानदारी बेमनियों के घर पानी भर रही है कुछ तथाकथित नरियाँ अपने मुलायम उंगलियों के स्पर्श से कामयाबी के कंधे छू रही हैं वहीं कुछ पुरुष वक्र दृष्टि से आधी आबादी की बुद्धि की तरफ कम देह की और अधिक आकर्षित होता जा रहा है साधु संतों के भेष के पीछे धर्म कम और मंक्कारी और वासनाओं का बाजार अधिक फल-फुल रहा है सूरज की पहली किरण के साथ सच माथें पर काली पट्टी बांधे झूठ के दरबार में झुक कर सलाम कर रहा है पर परिवर्तन के नियम से कोई नहीं बचा है ना धरा ना आसमान ना इंसान समय का पहियां अपनी रफ्तार पकड़ लेगा कुम्हार के चाक पर फिसलती अनावश्यक मिट्टी की भांति बेइमानिक का यह फलता फुलता बाजार अस्तित्वहीन होकर नष्ट होगा पुनरुत्थान की किरणों पर बैठ सच दतुरी मुस्कान के साथ मुस्कुरा उठेगा

आना है कुछ इस तरह करीब

मन के पटल को धीरे से उँगली से स्पर्श कर उदासियों की धूल झाड़ दी  मन की खिड़कियाँ खोल दी समुचित आकाश को  निहारती  रही  दूर से किसी ने आवाज लगाई  करीब आते आते शाम हो गई उसने मंदिर के दीए की लो में  मेरे चेहरे पर फैली उदासियों  की चादर  अपने हाथों के स्पर्श से हटा दी और कहा उतना ही करीब आवुगा जिससे समिर  की गति में अवरोध न उत्पन्न हो   यामीनि के पंख जख्मी न हो  कहीं दूर दराज में गूंजती  संध्या वाणी में हमारी सांसों की  ध्वनि से व्यवधान न पड़े  हमें आना है करीब पर कुछ इस तरह  हमारे करीब आने की खबर से  हम भी बेखबर रहे  हमें आना है कुछ इस तरह करीब

अलगाव

अलगाव ये शब्द  एक अरसे से चल रहा है  मेरे साथ  यदाकदा आंखों से  बहता ही रहता है  आज सोचती हूंँ  इतनी बार ये शब्द  मेरी आंसुओं में बहा है  फिर भी इसका अस्तित्व  क्यों नहीं मिट रहा है ? हर रिश्ते में ये शब्द  इतनी शिद्दत के साथ  क्यों अपनी जगह बन जाता है शायद जिस दिन मैं  पूर्ण रूप से  टूट वृक्ष बन मिट्टी से उखड़ कर  मिटने की प्रार्थना करूंगी  उस ईश से उस  दिन ये  मेरे साथ ही दफ़न होगा  जब सांसें छोड़ देगी देह का साथ उस दिन मैं बिदा हो जाऊगी अंतिम इच्छा के साथ उम्रभर जीया जिन जिन  अपनों से अलगाव का दुख उनके आंखों से एक भी आंसू न बहे मेरे अलगाव में...  मृत्यु संवाद नहीं करती है