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सितंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पिता

पिता ! जैसे घर की नीव  में  अदृश्यता से स्थित पत्थर सहता है सम्पूर्ण भार जताये बिन श्रम निरंतर पिता ! मिट्टी में स्थित बीज बिन संतुलन खोये  बिना लोभ लालच स्थित विशिष्ट दूरी पर उर्जा पहुंचाता निरंतर पिता! जैसे बूढ़ा दरख्त  चमड़े जितना सख़्त रक्त जमा दे क्यू न शीत  सहता धूप तपिश निरंतर पिता ! रात के अंधयारे में थकी आंखें दीवार पे बच्चों की सपनों की उड़ान रेखती रहती निरंतर पिता  एक ऐसा वजूद जिसके घिसे  जूतों से निकलता है संतानों के अस्तित्व का मार्ग जिनका जीवन में होना सूरज सम उर्जा से भरता रहना निरंतर (पिता हमेशा पुरूष ही नहीं होता है मां भी पिता का दायित्व संभाल लेने की क्षमता रखती हैं)

कुछ इस कदर बिखर गये हम

कई बार बिखरी थी वो हर बार समेट लिया करती थी खुद को  एक सिलसिला सा बनता गया बिखरने और समेंटने का  पर इस बार  उसने नहीं समेटा खुद को  क्योंकि उस बिख़राव को  जीना चाहती थी वो चलना चाहती थी उसी राह पर जिन पगडंडियों पर गिरे थे  ह्रदय के अनगिन टुकड़े कदमों में चुभते थे  जो बार-बार शूल की तरह हर चुभन के साथ बहे जो आंसू  लाल रंग के वो बहायेगी उसे नदी में  और एक दिन बह उठेंगी  लाल खून सी लहरें सागर के सीने पर  जो कर देंगी सागर के  अस्तित्व को शर्मिंदा  आज वो नहीं समेटना चाहती हैं  बिखरे हुए दिन और रात  उलझते हैं जो कई-कई बार सूरज की प्रथम किरण को  भूली थी वह चुभती थी उसे चांद की शीतलता  रात लंबी होती थी  इसलिए दिन के उजाले को  नहीं चीर पाती थी वो नहीं समेंटना चाहती थी उसका बिखरा श्रृंगार इस बार  काजल मेघ बन फैलता आसमान में माथे की बिंदी में बचा था  केवल एक शून्य उसके होठों की मुस्कान  पी गया था भ्रमर धोखे से अपने गुंजन में करके उसे मुग्ध I