मंदिरों में सजाया गया मुझे पर क्या घर आंगन में उतनी ही सहजता से क्या स्वीकारा गया है मुझे गर्भ से लेकर श्मशान तक कितनी कठिनाइयों को झेला पर इस रोष में कभी संसद पर ताला चढ़ाया है तूने ? देवालयों के गर्भगृह में सदा कीमती परिधानों से ढकी रही पर धूल ,मिट्टी कूड़े के बीच अपनी संतति की भूख बिनती कात्यायनी के फटे वस्त्रों को कभी निहारा है तूने ? नहीं ना तो सुनो मैंने उन तमाम दहलीज को लांघा हैं जहां मैं मूर्तियों में रची बसी गयी अब मैं रहती हूं उस अस्मिता के पीठ पर छांव बन जहां झुलसती है रोटी उन बिस्तरों के सिलवटों पर जहां औरत देह समझ नोची जाती है मैं बसती हूं उस कपाल के मध्य जहां बिंदी नहीं पसीना थकान बन बहता है