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वे जो लोकतंत्र के बीहड़ में खो गए

वे जिनका 
आकलन नहीं हुआ कभी
पर वो ही रहे सदा
धरती के सबसे करीब 
कभी पत्थरों को तो 
कभी ईटों को
बनाकर बिछोना 
आसमानी चादर ओढ़े रहे

पूरे दिन के श्रम के बाद 
हक की लड़ाई
अनसुनी कर
पेटभर रोटी के लिये 
बहाते रहे लहू
पसीने की शक्ल देकर
बदन भर कपड़ा और 
मुट्ठी भर बर्तनों को
मानकर पूँजी 
जूझते रहे

कभी सूरज के तेज को
अपनी पुतलियों में ना उतार सके
बस भुजाओं की गरमाहट से
कभी किसान तो कभी मजदूर बन
धरती का सीना खोदते रहे

चमकीली पसीने की बूँदों को
बदन से गिराते गये
धान के गर्भवती होने के 
उत्सवों को मनाते रहे

मगर अन्न के 
चंद दानों की खोज
घर से बेघर करती रही
हवा पानी जानवर पेड़ 
सभी गिने गये
पर ये धरती के वीर
खो गए
लोकतंत्र के बीहड़ में...

टिप्पणियाँ

  1. महुत ही सुंदर चित्रण हृदयस्पर्शी।
    दो वक़्त रोटी की जुगाड़ में डोलता कब लड़ेगा हक की लड़ाई। तभी बगुले नोच लेते हैं हक उनका फ़ुरसत फुकार भरती हैं उनकी।
    सराहनीय सृजन.

    जवाब देंहटाएं
  2. सटीक चित्रण मजदूरों की दशा का | ह्रदय स्पर्शी रचना |

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहद मर्मस्पर्शी प्रभावशाली अभिव्यक्ति।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं

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