अंतिम घर जब बचा था
तब मैं गांव गया था
रास्ता मेरी स्मृतियों में बसा था
पगडंडियों का नामोनिशान नहीं बचा था
मैं गैरूओ के पदचाप
जब ढूंढ रहा था तब बार-बार
जंगली झाड़ियों से परिचित हो रहा था
मैंने देर तक ढूंढा था उस दिन
लाल बुढी का ओसरा
जिस पर बैठकर वो
पूरी बस्ती का चावल गेहूं
पीसा करती थी चक्की में
बदले में आता था
किसी ना किसी घर से
उसके लिए मांडभात
पर पूरी बस्ती को घर समझकर
खिलाने -पिलाने का रिवाज
शायद लाल बुढी के साथ ही उठ चला था
कहां गुम हो गए वो
छोटे बड़े जमीन में खोदें गड्ढे
जिसमें गोबर भूसा डाल
लड़कियां उपले थापा करती थी
आयी भी होगी वे
अपने मायके को ढूंढते कभी
जो कभी अस्मिताओं के हाथ से
अर्पण होता था
नाजुक थी तुलसी बिरवा पर
या फिर श्री गणेश के विग्रह को
जल समाधि दे पावन होता था
गांव का वो कुआँ
आज कितना विकराल रूप
धारण कर चुका था
इधर -उधर फैले
आम के वो पेड़
फलों से लदे तो थे
पर बच्चों से घिरे ना होने के
कारण उदास से खड़े थे
उस दिन जब मैं अंतिम बचे
घर की तरफ मुड़ा था
तो दीमकों की उभरती बस्ती देख
मन ही मन खूब रोया था
चुल्हे की देह पर आग के
ना होने का यह संकेत था
अच्छी कविता। जीवन से बहुत से चित्र उठ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
हटाएंकविता में बहुत कुछ दिया है । फिर भी एक सोच , सब की कहानी कहती है । यही गांव की पहचान है ।गांव तो गांव होता है । क्या वह किसी का हो ...?
जवाब देंहटाएं- बीजेन्द्र जैमिनी
बिलकुल सर
हटाएंबहुत ही सुंदर शब्द चित्र, हृदय में उभर आई गाँव की गलियाँ।
जवाब देंहटाएंसादर