उस व्यवस्था से तुम
हो जाओ मुक्त
जो छाँव देने के भरोसे के बदले
छीन लेती है तुम्हारी
स्वनिर्मित आशियाने की छत
उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त
जो तुम्हारी हथेली पर
खींच देती है एक रेखा
भाग्य के सिदुंर की
और छीन लेती है
तुम्हारी अँगुलियों की ताकत
उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त
जो तुम्हारे कंधों पर रख देती है हाथ
जीवन भर साथ निभाने के
आश्वासन के साथ
और तोड़ देती है एक मजबूत हड्डी
तुम्हारे बाजुओं की
उस व्यवस्था से तुम हो जाओ मुक्त
जो तुम्हारे ह्रदय के गर्भ गृह में
हो जाती है प्रेम से दाखिल
और तुम बसा लेती हो
एकनिष्ठ एक ईश्वर की प्रतिमा
जिस दिन
तुम हठ करती हो
एक कतरा उजाले की
वो छीन लेती है
तुम्हारी आँखों की पुतलियाँ।
।।।।।
बहुत ही गहराई से उस व्यवस्था पर चोट है की है जो हमारी जिंदगी में दबे पांव कभी हमारी अनुमति और पसन्द कभी अनुमति और पसन्द के बिना दाखिल हो जाती है।
जवाब देंहटाएंसादर
रचना दीक्षित
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया
हटाएंव्यवस्था के विरुद्ध आवाज जरुरी है और वह आवाज आप इसी तरह बुलंद करती रहें, यही शुभकामना है
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