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सुनो ना

सुनो ना

सुनो ना
तुम्ह बनो कवि
मै बनूँ तुम्हारी कविता
तुम्हारे मन से
बरस पडूँ छन छन
लफ़्ज़ों की नदियों में
उकेर दो तुम मुझमें
एक प्रेमिका

बन जाये 
एक सिलसिला प्यार का
समा जाऊं तुम्हारे कण कण मे
बाँध दूं तुम्हारी चचंल गति
मर्यादा में
बन जाऊं तुम्हारी सीता
तुम बनो मेरे राम

उस कविता मे भर दो तुम
कुछ रंग गुलाबी
मै बह जाऊं उसमें
निर्झर बनके सरिता
जीवन की अँधयारे गलियों मे
जला दो एक दिया प्रेम का

थमा दो मेरे हाथ में
एक टोकरी सुख की
जिसमें कुछ रंग हो
सजा दूं मै एक चित्र
अगले जनम का
जिसमें तुम रूक जाना
अगले कई जन्मों तक

भरूँ मैं अपने पंखो में उडान
आऊं मै तेरे धाम 
बाँध लू तुम्हे
मै अपने केशों में
जैसे बँधा होता है
निर्मल जल मेघ में

निहारता है चाँद तुलसी को
निरतंर
तुम बनो चाँद
मै बनूँ तुम्हारी तुलसी
उत्सव नही है ये
एक दिन का
युगों युगों का साथ है
चाँद तुलसी का

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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।