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संबोधन

गाय के संबोधन से 

नवाजी जाती हैं 

कुछ स्त्रियाँ

कहने/सुनने वालों के 

लिए तो वे बन जाती है

गुणगान का पात्र भी 

पर,हमेशा से 

उनके जीवन में 

अहम भूमिकाएं निभाती हैं 

खूँटियाँ 

दूर होने की कोशिश मात्र से 

लाल हो जाती हैं

उनकी ग्रीवाएं

और कुछ स्त्रियाँ गाय,

खूँटी,रस्सी जैसे सम्बोधनों को 

उतार कर चल देती हैं 

ऐसे में दिग्भ्रमित हो उठता है

उन तथाकथित 

पुरुषों का अहंकार

जैसे कि सार्वजनिक हो गई हो

उनकी देह 

उनके गले में 

रस्सी का ना होना 

हमेशा अखरता है उन्हे

ऐसे में एकतरफा 

आसनों पर आसीन हो

काटने लगते हैं

उन स्त्रियों के नाम

बदचलनी के प्रमाणपत्र

ऐसे पुरुषो को जो हो चुके हैं

कुण्ठा का शिकार

अब उन्हें भूलना होगा

खूँटी को जमीन में गाड़ने की कला 

क्योंकि अब उन तमाम 

औरतों ने बदल दी है

गाय होने की अपनी परिभाषा |



टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२ -०२ -२०२२ ) को
    'यादों के पिटारे से, इक लम्हा गिरा दूँ' (चर्चा अंक-४३३९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत प्रभावी और सामयिक रचना …
    स्त्री पात्र को बखूबी जिया है रचना ने …

    जवाब देंहटाएं
  3. अभी भी बहुत कुछ बदलाव होना जरूरी है।
    औरत हिज़ाब में या फिर घूंघट में दोनों में कोई भी तो अच्छा नहीं। है तो खूंटी ही।
    बहुत सुंदर रचना।

    नई रचना CYCLAMEN COUM : ख़ूबसूरती की बला

    जवाब देंहटाएं
  4. गाय स्वरूप ही रखना चाहते हैं ये औरत को...घूँघट या हिजाब में बँधा
    पर अब शायद खुद ही बँधेंगे खूँटी से।
    बहुत ही प्रभावी लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  5. औरत कहीं भी पहुँच जाये , अगर वह खूँटे से न बँधी रहे तो विशेषण परोक्ष रूप से मिलते ही हैं।

    जवाब देंहटाएं

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