गांव के कुएं की देह
अब झुरियों से भर गई हैं
मेंढकों ने भी शायद
वहां के बाशिंदों के मार्फ़त
अपनी गठरी बांध ली हैं ।
बारिशों में कुआं
मुमकिन होता तो
भीगने से खुद को
बचा लेता क्योंकि
उसके तृप्त होने का
उत्सव मनाने गगरी का
अब नृत्य नहीं होता है ।
क्या गांव के कुएं की
देह पर पड़ती झुरियां
शहर - महानगरों की
नींव में पड़ते
ईटों के निशान है
या फिर मिट्टी को भूल
पेट की आग बुझाने के
मतलबी लोगों की पहचान है ।
गम्भीर रचती हो
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (१८-०२ -२०२२ ) को
'भाग्य'(चर्चा अंक-४३४४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद आदरणीय
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंविचारणीय सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंविचार को संप्रेषित करती अच्छी और प्रभावी कविता
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