१) सिहासनों पर नहीं पड़ती हैं कभी कोई सिलवटें जबकि झोपड़ियों के भीतर जन्म लेती हैं बेहिसाब चिंता की रेखाएं सड़कों पर चलते माथे की लकीरों ने क्या कभी की होगी कोशिश होगी सिलवटों के न उभरने के गणित को बिगाड़ने की। २) सत्ता का ताज भले ही सर बदलता रहा राजाओं का फरेबी मन कभी न बदला चाहे वो सत्ता का गीत बजा रहा या फिर बिन सत्ता पी रहा हाला ३) जिस कटोरे में हम अश्रु बहाते हैं उसी कटोरे को लेकर हर बार हमारे अंगूठे का अधिकार मांगते हैं आजादी से लेकर अब तक जो भी सत्ता की कुर्सी पर झूला है हमारे सांसों के साथ वो मनमर्जी से हर बार खेला है सरिता सैल
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (21-02-2022 ) को 'सत्य-अहिंसा की राहों पर, चलना है आसान नहीं' (चर्चा अंक 4347) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 22 फरवरी 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत ही खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर सृजन
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