उसकी घर की दीवारों पर
खिड़कियाँ अब नहीं बची हैं
और जो है ,उसे वो खिड़कियाँ
इसलिए नहीं कहती है
क्यों कि वहाँ से वो जभी
बाहर की दुनिया में
देखने की कोशिश करती है
इसके पहले ही इन खिड़कियों पर
वो तमाम आंखें मौजूद रहती हैं
जिन्हें देखना होता है
अकेली औरत सच में अकेली रहती हैं
या फिर उसकी देह से
पर पुरुष की गंध आती हैं
या फिर उसके दरवाजे़ पर
ताला चढ़ाने का और
उतारने का समय कही बदला तो नहीं
अगर बदला भी है तो फिर क्यों बदला है ?
असमय खुलता हैं दरवाजा जभी
तब तब मोहल्ले की
दस खिड़कियां भी खुल जाती हैं
और आज के समय में ज्यादातर
खिड़कियाँ भीतर से नहीं
बाहर से खुलती हैं
पर आने वाले समय में अकेली औरत
उसकी खिड़कीे पर जमा
अनायास प्रश्न चिन्हों की धूल
लापरवाही के अंदाज में झाड़कर
ऊँची तान में संगीत की धुन छेड़ देगीं
गली मोहल्ले की खिड़कियाँ
निरुतरता के साथ बंद होगी
बेहद गम्भीर बिंब को ध्यान में रखते हुए रची गयी जरूरी कविता !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंआजकल ज्यादातर खिड़कियां बाहर से खुलती हैं अंदर से नहीं..❤️❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दी ❤
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