आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच "भौंहें वक्र-कमान न कर" (चर्चा अंक-4181) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।-- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तुम्हारी उदासियों से देखो कैसी उड़ गई है ओस की बूंदों की जान - प्रयोग सुंदर सच कहती हो तुम खुशियां कितनी नाजुक होती हैं तुम्हारी तरह उदासियों को कर दो स्थगित kabirakhadabazarmein.blogspot.com
1 मैं उम्र के उस पड़ाव पर तुमसे भेंट करना चाहती हूं जब देह छोड़ चुकी होगी देह के साथ खुलकर तृप्त होने की इच्छा और हम दोनों के ह्रदय में केवल बची होगी निस्वार्थ प्रेम की भावना क्या ऐसी भेंट का इंतजार तुम भी करोगे 2 पत्तियों पर कुछ कविताएं लिख कर सूर्य के हाथों लोकार्पण कर आयी हूं अब दुःख नहीं है मुझे अपने शब्दों को पाती का रुप न देने का ना ही भय है मुझे अब मेरी किताब के नीचे एक वृक्ष के दब कर मरने का 3 आंगन की तुलसी पूरा दिन तुम्हारी प्रतिक्षा में कांट देती है पर तुम्ह कभी उसके लिए नहीं लौटे 4 कितना कुछ लिखा मैंने संघर्ष की कलम से समाज की पीठ पर कागज की देह पर उकेरकर किताबों की बाहों में उन पलों को मैं समर्पित कर सकूं इतने भी सकुन के क्षण जिये नहीं मैंने 5 मेरी नींद ने करवट पर सपनों में दखलअंदाजी करने का इल्जाम लगाया है
जिस दिन समाज का छोटा तबका बंदूक की गोलियों से और तलवार की धार से डरना बंद कर देगा । उस दिन समझ लेना बारूद के कारखानों में धान उग आएगा बलिया हवा संग चैत गायेगी । बच्चों के हाथों से आसमान में उछली गेंद पर लड़ाकू विमान की ध्वनियां नहीं टकराऐगी । जिस दिन समाज का छोटा तबका बंदूक और तलवार की भाषा को अघोषित करार देगा । उस दिन एक नई भाषा का जन्म होगा जिसकी वर्णमाला से शांति और अहिंसा के नारों का निर्माण होगा ।
जब वह औरत मरी तो रोने वाले ना के बराबर थे जो थे वे बहुत दूर थे खामोशी से श्मशान पर आग जली और रात की नीरवता में अंधियारे से बतयाती बुझ गई कमरे में झांकने से मिल गई थी कुछ सुखी कलियां जो फूल होने से बचाई गई थी जैसे बसंत को रोक रही थी वो कुछ डायरियों के पन्नों पर नदी सूखी गई थी तो कहीं पर यातनाओं का वह पहाड़ था जहां उसके समस्त जीवन के पीडा़वों के वो पत्थर थे जिसे ढोते ढोते उसकी पीठ रक्त उकेर गई थी कुछ पुराने खत जिस पर नमक जम गया था डाकिया अब राह भूल गया था मरने के बाद उस औरत ने बहुत कुछ पीछे छोड़ा था पर उसे देखने के लिए जिन नजरों की आज जरूरत थी उसी ने नजरें फेर ली थी इसीलिए तो उस औरत ने आंखें समय के पहले ही मुद ली थी ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच "भौंहें वक्र-कमान न कर" (चर्चा अंक-4181) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंतुम्हारी उदासियों से देखो
जवाब देंहटाएंकैसी उड़ गई है
ओस की बूंदों की जान - प्रयोग सुंदर
सच कहती हो तुम
खुशियां कितनी नाजुक होती हैं
तुम्हारी तरह
उदासियों को कर दो
स्थगित
kabirakhadabazarmein.blogspot.com
सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
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