काली रात की चादर ओढ़े आसमान के मध्य धवल चंद्रमा कुछ ऐसा ही आभास होता है जैसे दु:ख के घेरे में फंसा सुख का एक लम्हां दुख़ क्यों नहीं चला जाता है किसी निर्जन बियाबांन में सन्यासी की तरह दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता कभी कभी सुख के पैरों में अविश्वास के कण लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर दु:ख को गले लगाती हूं और तय करती हूं एक निर्जन बियाबान का सफ़र
इसलिए नहीं कि वह बेकार था इसलिए कि वह सबके राज जानता था सबकी कलंक कथाओं का वह एकमात्र गवाह था किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था इसीलिए वह नकारा गया सभाओं से मंचों से उत्सवों से पर रुको थोड़ा वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।
अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंसुंदर
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