वेश्याओं का जन्म!
माँ के गर्भ से नहीं होता है
वो तो खाली तश्तरी से उठकर
स्वार्थ की घने अन्धकार में
हवस की दीवार पर
बिना जड़ की बेल सी पनपती है
उसका मन
हमेशा देहलीज़ पर बैठ
हर दिन गिनता रहता है
उसके ही तन की आवाजाही को
जब वो बाजार के पैने
दांतों पर बैठकर
हवस के पुजारियों की आँखो में
ढूंढती है रोटी
मन उसे वहीं पर छोड़ चला आता
और दहलीज़ पर बैठकर
करता खुद से
अपने अस्तित्व को लेकर अनगिनत
सवाल
आखिर क्यों
अंतड़ियों की भूख भिनभिनाती है
हमेशा मक्खियों की तरह
क्यों नहीं सो पाया बेचैन मन
एक अरसे से
घना अंधेरा क्यों जम जाता है
घर की दहलीज़ पर
मन को लगता है
आंगन के उस पार
एक घना सा बीहड़ है शायद
और उस घने बिहड़ में से
एक खूंखार जानवर
उसके घर के अंदर दाखिल हो गया है
बहुत बढ़िया....
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंतारिफ के लिए आभार
हटाएंबहुत ही बढ़िया ,उम्दा
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर जब भी जाना चाहती हूं आपका ब्लॉग खुलता ही नहीं ,इसलिए नई रचना की लिंक के माध्यम से ही यहां पर आ पाती हूँ ।
धन्यवाद आपका
हटाएंमुझे भी उतना पता नहीं है मेरे साथ भी ऐसी ही दिक्कत होती है
फिर भी आप हर रचना को पड़कर अपनी राय देती है आभार आपका
बहुत सामवेदनशील रचना ... जन्म से कोई ऐसा नहि होता पर परिस्थिति क्या से क्या कर देती है ... वैश्या के मन में भी कोमल भाव तो रहते ही हैं ...
जवाब देंहटाएंजी सही कहा आपने परिस्थितियों के वंश में हो जाता है इन्सान कभी कभी
हटाएंधन्यवाद सर
उफ़ बेहद संवेदनशील रचना
जवाब देंहटाएंस्वाघत आप का मेरे ब्लोग पर
हटाएंधन्यवाद
बहुत संवेदनशील रचना ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दी
हटाएंओह्ह्ह्हह्हह !!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंपरिस्थिति क्या क्या नहीं करवाती है। बेहद भावपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंजी
हटाएंआभार