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वैश्या

वेश्याओं का जन्म!
माँ के गर्भ से नहीं होता है
वो तो खाली तश्तरी से उठकर
स्वार्थ की घने अन्धकार में
हवस की दीवार पर 
बिना जड़ की बेल सी पनपती है

उसका मन 
हमेशा देहलीज़ पर बैठ
हर दिन गिनता रहता है
उसके ही तन की आवाजाही को
जब वो बाजार के पैने
दांतों पर बैठकर
हवस के पुजारियों की आँखो में
ढूंढती है रोटी 
मन उसे वहीं पर छोड़ चला आता 
और दहलीज़ पर बैठकर 
करता खुद से 
अपने अस्तित्व को लेकर अनगिनत 
 सवाल
आखिर क्यों 
अंतड़ियों की भूख भिनभिनाती है
हमेशा मक्खियों की तरह
क्यों नहीं सो पाया बेचैन मन 
एक अरसे से 
घना अंधेरा क्यों जम जाता है
घर की दहलीज़ पर 

 मन को लगता है
आंगन के उस पार
एक घना सा बीहड़ है शायद
और उस घने बिहड़ में से
एक खूंखार जानवर 
उसके घर के अंदर दाखिल हो गया है

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही अच्छा लिखा है आपने

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही बढ़िया ,उम्दा
    आपके ब्लॉग पर जब भी जाना चाहती हूं आपका ब्लॉग खुलता ही नहीं ,इसलिए नई रचना की लिंक के माध्यम से ही यहां पर आ पाती हूँ ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद आपका
      मुझे भी उतना पता नहीं है मेरे साथ भी ऐसी ही दिक्कत होती है
      फिर भी आप हर रचना को पड़कर अपनी राय देती है आभार आपका

      हटाएं
  3. बहुत सामवेदनशील रचना ... जन्म से कोई ऐसा नहि होता पर परिस्थिति क्या से क्या कर देती है ... वैश्या के मन में भी कोमल भाव तो रहते ही हैं ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी सही कहा आपने परिस्थितियों के वंश में हो जाता है इन्सान कभी कभी
      धन्यवाद सर

      हटाएं
  4. उफ़ बेहद संवेदनशील रचना

    जवाब देंहटाएं
  5. परिस्थिति क्या क्या नहीं करवाती है। बेहद भावपूर्ण रचना।

    जवाब देंहटाएं

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