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सितंबर, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कुछ कविताएँ

1. उस साल मेरे शहर में बहुत सी प्रतिमाओं का अनावरण हुआ था और उसी साल बहुत से बेघरों को उ न प्रतिमाओं के नीचे आश्रय मिला था 2. एका अरसे बाद मैं रेलवे स्टेशन पर गया पर मुझे ना तुम्हारे पास आना था ना ना तुम मेरे पास आ रही थी बस में इस आने जाने वाले खेल की यादों में फिर से एक बार डुब जाना चाहता था झूठा ही सही फिर एक बार में तुम्हें सच मानकर जीना चाहता था

वो एक शाम

उस शाम तुम गए फिर कभी नहीं लौटे न जाने कितने डूबते   सूरज मैंने जलभरी आंखों से विदा किये जाने कितनी रातों ने मेरी सिसकियों को अपने गर्भ में पनाह दी सूरज उगता रहा पर मेरे देहरी तक पहुंच ना पाए मैं उस शाम के दहलीज पर आज भी खड़ी हुं मानो एक युग से

हम अकेले जीते लोग

हम अकेले जीते लोग जिनसे समय ने तकदीर ने छीन लिया हमारे साथ चलते कदमों को और बहाल कर दिया है हमारे जीवन में रिक्तता हमारी हथेलियों को नहीं होता है कभी  स्पर्श किसी अन्य हथेलियों का ना ही हमारे हिस्से आती हैं वो सुबहे जिममें शामिल होता है किसी के जगाने का मुलायम स्पर्श न हीं देर रात तक दरवाजे पर टिके रहते हैं किसी के कदम हमारा इंतजार लेकर हम अकेले जीते लोग जो बेगुनाह होकर भी गुनहगार बन सबकी आंखों में प्रश्नचिन्ह बन जाते हैं त्योहारों के बाजार में हम खो जाते हैं लेकर अपना गम हम बस उतने ही जिंदा रहते हैं जितनी हमारे कंधों पर जिम्मेदारियों का वजन रहता है हमारे शौक हमारी पसंद नापसंद इसका ख्याल कोही नहीं रखता और एक दिन हम ही भूल जाते हैं हम क्या चाहते हैं क्या नहीं हम अकेले जीते लोग रात में करवट बदलने से भी डरते हैं तारों से भरे आसमान में धरा पर लेकर तन्हाई हम अपने आप से सिमट कर सोते हैं

छुटना

बहुत कुछ छूट गया है  बहुत कुछ छूट रहा है  इस तरह छूटने की क्रिया  लगातार जारी है ।  बस अब एक अंतिम सांस का छूटने का इंतजार है ।  ठीक वैसे ही  जब तुम छोड़ कर चले गए थे  उस रोज एक नस टूट गई थी  एक सांस जिम्मेदारीयोंने पकड़ रखी थी  बस उसी सांस का अंतिम बार छूटना बाकी है। 

मेरा अकेलापन

खूबसूरत था मेरा अकेलापन  जिसमें मैं थी केवल मैं पर तुम ज्वार की तरह दस्तक दे गए  और तहस-नहस हो गया  मेरा शेष जीवन  उदास नैनों में बसती है एक नदी  जो तुम्हारे अपमान के  छालों को बहाती हैं हरदम  कितनी ही दफा चाहा मैंने  मिटा दू उन स्मृतियों को  जहां तुमने दिये जख्मों का  एक पर्वत सा खड़ा हैं  पर पाषाण पर खींची रेखा  ना मिटी सकी ना  समय की धूल ठहरी सकी  मुंडेर पर बैठे तुलसी  आसमान में ठहरा चांद  दिए की लौ में अक्सर  भाप लेते हैं मेरे आंखों से बहत जल  खूबसूरत था मेरा अकेलापन  जिसमें मैं थी केवल मैं पर आज वहां गूंजती है  मेरी सिसकियों की ध्वनि  और खारे पानी का जलाभिषेक

क्षणिकाएँ

1. धुएँ की एक लकीर थी  शायद मैं तुम्हारे लिये  जो धीरे-धीरे  हवा में कही गुम हो गयी 2. वो झूठ के सहारे आया था वो झूठ के सहारे चला गया यही एक सच था 3. संवाद से समाधि तक का सफर खत्म हो गया 4. प्रेम दुनिया में धीरे धीरे बाजार की शक्ल ले रहा है प्रेम भी कुछ इसी तरह किया जा रहा है लोग हर चीज को छुकर दाम पूछते है मन भरने पर छोड़कर चले जाते हैं

बाल विधवाएँ

ताउम्र मेरे पीछे चलती रहीं  वो बाल विधवाएँ  उनके हृदय में उपजा विरोध  मेरे हृदय में बसा धरोहर की तरह  और मेरे मस्तिष्क ने पी लिया  असमय जरूरत पड़ी जड़ी बूटी की तरह  बचपन के कैनवास पर  नहीं अंकित है गुड्डी गुड़ियों का खेल ना छुपम छुपाई का कोलाहल सदा भूखी  देह और सूना हृदय लिए घूमती रही ईर्दगिर्द ये तमाम बाल विधवाएँ त्योहारों के दिनों में भी ठीक वैसी ही किनारे कर दी जाती रहीं जैसे पूजा की थाली में गलती से आया कोई जंगली फूल वो खुद भी आदी थीं  राह चलते  सामने किसी को देख  किनारे हो जाने की कला की शादी ब्याह के अवसरों पर घर के पिछले दरवाजे पर बसता  इनका एक अलग सा गांव  हर रस्म के साथ जब कच्चे धागे से  पक्के घाव रिसने लगते थे तब पोछ देती थीं एक दूसरे के दु:ख  सफेद वस्त्र के सूने आंचल से  छुपम छुपाई के खेल ने  छुपा लिए इनके राजकुमार  सदा के लिए ईश्वर ने और जीवित अवस्था में  जला दिये इनके गर्भ शमशान की अग्नि में  इसतरह भूखी रहीं बदन से खाली रहीं और श्रृंगार से वर्तमान में कमतरता का विरोध जब-जब  मुझे करना पड़ता है उन्ह अवसरों पर मैं इन बाल विधवाओं के विरोध को भाषा का परचम बना लहरा देती हूं।

जूते

जूते उन्हें भ्रम था  उनके जूते  बहुत ताक़तवर हैं उसके फीते  सत्ता और रूपयों से  बुने हुए थे उनके जूतों ने मिट्टी कम चखी थी रक्त अधिक पीया था कभी भी  खिसक सकती थी उनके जूते के नीचे की ज़मीन।

मुखौटे

मुखौटे इतने मिले कि चेहरे याद ही नहीं रहे अब अगर चेहरे मिल भी जाते हैं तो बहुत तंग नजर आती हैं भरोसे की गलियाँ ।