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क्षणिकाएँ

1.


धुएँ की एक लकीर थी 
शायद मैं तुम्हारे लिये 
जो धीरे-धीरे 
हवा में कही गुम हो गयी

2.


वो झूठ के सहारे आया था
वो झूठ के सहारे चला गया
यही एक सच था


3.


संवाद से
समाधि तक
का सफर
खत्म हो गया


4.


प्रेम दुनिया में
धीरे धीरे
बाजार की शक्ल
ले रहा है
प्रेम भी
कुछ इसी तरह
किया जा रहा है
लोग हर चीज को
छुकर दाम पूछते है
मन भरने पर
छोड़कर चले जाते हैं

टिप्पणियाँ

  1. धिरे की जगह धीरे और पुछ की जगह पूछ होना चाहिए, सभी क्षणिकाएँ बहुत ही सुंदर हैं

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब..शानदार क्षण‍िकायें

    जवाब देंहटाएं
  3. गणेश चतुर्थी की आपको हार्दिक शुभकामनाएं। रिद्धि सिद्धि के दाता गणपति सभी को आरोग्य व सुख समृद्धि प्रदान करें 🙏
    बहुत सुन्दर क्षण‍िकायें।

    जवाब देंहटाएं

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रिश्ते

अपना खाली समय गुजारने के लिए कभी रिश्तें नही बनाने चाहिए |क्योंकि हर रिश्तें में दो लोग होते हैं, एक वो जो समय बीताकर निकल जाता है , और दुसरा उस रिश्ते का ज़हर तांउम्र पीता रहता है | हम रिश्तें को  किसी खाने के पेकट की तरह खत्म करने के बाद फेंक देते हैं | या फिर तीन घटें के फिल्म के बाद उसकी टिकट को फेंक दिया जाता है | वैसे ही हम कही बार रिश्तें को डेस्पिन में फेककर आगे निकल जाते हैं पर हममें से कही लोग ऐसे भी होते हैं , जिनके लिए आसानी से आगे बड़ जाना रिश्तों को भुलाना मुमकिन नहीं होता है | ऐसे लोगों के हिस्से अक्सर घुटन भरा समय और तकलीफ ही आती है | माना की इस तेज रफ्तार जीवन की शैली में युज़ ऐड़ थ्रो का चलन बड़ रहा है और इस, चलन के चलते हमने धरा की गर्भ को तो विषैला बना ही दिया है पर रिश्तों में हम इस चलन को लाकर मनुष्य के ह्रदय में बसे विश्वास , संवेदना, और प्रेम जैसे खुबसूरत भावों को भी नष्ट करके ज़हर भर रहे हैं  

दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र