उस शाम तुम गए
फिर कभी नहीं लौटे
न जाने कितने
डूबते सूरज
मैंने जलभरी आंखों से
विदा किये
जाने कितनी रातों ने
मेरी सिसकियों को
अपने गर्भ में पनाह दी
सूरज उगता रहा
पर मेरे देहरी तक पहुंच ना पाए
मैं उस शाम के दहलीज पर
आज भी खड़ी हुं मानो एक युग से
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