खूबसूरत था मेरा अकेलापन
जिसमें मैं थी केवल मैं
पर तुम ज्वार की तरह दस्तक दे गए
और तहस-नहस हो गया
मेरा शेष जीवन
उदास नैनों में बसती है एक नदी
जो तुम्हारे अपमान के
छालों को बहाती हैं हरदम
कितनी ही दफा चाहा मैंने
मिटा दू उन स्मृतियों को
जहां तुमने दिये जख्मों का
एक पर्वत सा खड़ा हैं
पर पाषाण पर खींची रेखा
ना मिटी सकी ना समय की धूल ठहरी सकी
मुंडेर पर बैठे तुलसी
आसमान में ठहरा चांद
दिए की लौ में अक्सर
भाप लेते हैं मेरे आंखों से बहत जल
खूबसूरत था मेरा अकेलापन
जिसमें मैं थी केवल मैं
पर आज वहां गूंजती है
मेरी सिसकियों की ध्वनि
और खारे पानी का जलाभिषेक
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