ताउम्र मेरे पीछे चलती रहीं
वो बाल विधवाएँ
उनके हृदय में उपजा विरोध
मेरे हृदय में बसा धरोहर की तरह
और मेरे मस्तिष्क ने पी लिया
असमय जरूरत पड़ी जड़ी बूटी की तरह
बचपन के कैनवास पर
नहीं अंकित है गुड्डी गुड़ियों का खेल
ना छुपम छुपाई का कोलाहल
सदा भूखी देह और सूना हृदय लिए
घूमती रही ईर्दगिर्द ये तमाम बाल विधवाएँ
त्योहारों के दिनों में भी
ठीक वैसी ही किनारे कर दी जाती रहीं
जैसे पूजा की थाली में गलती से आया कोई जंगली फूल
वो खुद भी आदी थीं राह चलते
सामने किसी को देख
किनारे हो जाने की कला की
शादी ब्याह के अवसरों पर
घर के पिछले दरवाजे पर बसता
इनका एक अलग सा गांव
हर रस्म के साथ जब कच्चे धागे से
पक्के घाव रिसने लगते थे
तब पोछ देती थीं एक दूसरे के दु:ख
सफेद वस्त्र के सूने आंचल से
छुपम छुपाई के खेल ने
छुपा लिए इनके राजकुमार
सदा के लिए ईश्वर ने और
जीवित अवस्था में जला दिये
इनके गर्भ शमशान की अग्नि में
इसतरह भूखी रहीं बदन से खाली रहीं और श्रृंगार से
वर्तमान में कमतरता का विरोध जब-जब
मुझे करना पड़ता है उन्ह अवसरों पर
मैं इन बाल विधवाओं के विरोध को
भाषा का परचम बना लहरा देती हूं।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" शुक्रवार 06 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंमार्मिक और भावप्रवण रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंमार्मिक रचना ! बाल विधवाओं का दुख अति निर्मम है, जिस बात के लिए उन्हें दंडित किया जाता है उसमें उनका कोई हाथ नहीं होता। अब समय बदल रहा है, शायद उन्हें अन्याय का सामना नहीं करना पड़ेगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इस खुबसूरत टिप्पणी के लिए
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
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