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यह समय

इंसानी उंगलियाँ पर
केंकटस के जंगल उग रहे है
और धरा का सीना 
तितलियों के मृतदेह से
सना पडा़ है

बिल्ली के माथे पर
दिया रखकर
दुनिया में उजाले का
भ्रम्ह पैदा किया जा रहा है

बुद्ध के उपदेश
उब रहे है दिवारों पर
और प्रयोगशाला में
बारुद के रसायन
घोले जा रहे है

पाठशालाओं की 
इमारतें जितनी
महंगी होती जा रहीं हैं
उतने ही तेजी से
नैतिकता गर्त में जा रही है

संभ्यता की सड़के
निर्जन होती जा रही है
और असभ्यता के
महामार्ग रोज
तारकोल से चमकाये
जा रहे हैं

समय की जेब 
स्वार्थियों के
कमीज पर इंसानी 
लार से चिपकाई 
जा रही है











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रमा

शनिवार की दोपहर हुबली शहर के बस अड्डें पर उन लोगों की भीड़ थी जो हफ्तें में एक बार अपने गांव जाते । कंटक्टर अलग-अलग गांवो ,कस्बों, शहरों के नाम पुकार रहें थे । भींड के कोलाहल और शोर-शराबे के बीच कंडक्टर की पूकार स्पष्टं और किसे संगीत के बोल की तरह सुनाई दे रही  थी । इसी बीच हफ्तें भर के परिश्रम और थकान के बाद रमा अपनी  एक और मंजिल की तरफ जिम्मेदारी को कंधों पर लादे हर शनिवार की तरह इस शनिवार भी गांव की दों बजे की बस पकड़ने के लिए आधी सांस भरी ना छोड़ी इस तरह कदम बढ़ा रही थी । तभी उसके कानों में अपने गांव का नाम पड़ा कंडक्टर उँची तान में पुकार रहा था किरवती... किरवती...किरवती ... अपने गांव का नाम कान में पड़ते ही उसके पैरों की थकान कोसों दूर भाग गई । उसने बस पर चढ़ते ही इधर-उधर नजर दौड़ाई दो चार जगहें खाली दिखाई दी वो एक महिला के बाजू में जाकर बैठ गए ताकि थोड़ी जंबान  भी चल जाएगी और पसरकर आराम से बैठ सकेगी बाजू में बैठी महिला भी अनुमान उसी के उम्रं की होगी । रमा ने अपने सामान की थैली नीचे पैरों के पास रखतें हुएं उस महिला से पूछा  “  आप कहां जा रही हैं ?’’  “ यही नवलगुंद में उतर जाऊंगी ।

प्रेम 1

अगर प्रेम का मतलब  इतना भर होता एक दूसरे से अनगिनत संवादों को समय की पीठ पर उतारते रहना वादों के महानगर खड़ें करना एक दूसरे के बगैर न रहकर हर प्रहर का  बंद दरवाजा खोल देना अगर प्रेम की सीमा इतनी भर होती  तो कबका तुम्हें मैं भुला देती  पर प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई वो लकीर है  जो मेरे अंतिम यात्रा तक रहेगी  और दाह की भूमि तक आकर मेरे देह के साथ मिट जायेगी और हवा के तरंगों पर सवार हो आसमानी बादल बनकर  किसी तुलसी के हृदय में बूंद बन समा जाएगी  तुम्हारा प्रेम मेरे लिए आत्मा पर गिरवाई  वो लकीर है जो पुनः पुनः जन्म लेगी

उपमायें

लड़कियों को उपमायें  मिलती है  चांद , फूलों की ओस की बूंदों की  उम्र के इस पड़ाव पर  जब मैं खंगालती हूं  मेरे भीतर के भयानक रस में  डूबी उपमावों की पोटली कानों में गूंजने लगती है  वही चिर परिचित आवाज पिछले घरकी चाची कहती थी  तू जनते समय महादेव  चुल्हे के पास बैठे पार्वती को  मना रहे थे इसीलिए तो तेरा रंग  चुल्हे की कालिख़ सा चढ़ गया  बड़ी सी मेरी आंखों में भी नहीं देखी  कभी किसी को खूबसूरती   अक्सर सुनती थी मैं  जिस साल मै पैदा हुई थी  वो समय पानी के अकाल का था  सबकी आंखें आसमान को  ताकते ताकते बाहर आई थी  कलसी लिए चलती मेरी धीमी चाल देख  ओसारे पर बैठी आजी कहती  कुष्ठ रोग से गले तेरे पैर देख  तुझे अगली गाड़ी से ही  मैयके रवाना कर देगी सांस तेरी आज समय भले ही बहुत आगे निकल आया हो  ओसारा न रहा ना आजी की सांसे  पर उसके शब्द शब्द वर्तमान के  इस ब्रह्मांड में निरंतर घूम रहे हैं निरंतर