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यह समय

इंसानी उंगलियाँ पर
केंकटस के जंगल उग रहे है
और धरा का सीना 
तितलियों के मृतदेह से
सना पडा़ है

बिल्ली के माथे पर
दिया रखकर
दुनिया में उजाले का
भ्रम्ह पैदा किया जा रहा है

बुद्ध के उपदेश
उब रहे है दिवारों पर
और प्रयोगशाला में
बारुद के रसायन
घोले जा रहे है

पाठशालाओं की 
इमारतें जितनी
महंगी होती जा रहीं हैं
उतने ही तेजी से
नैतिकता गर्त में जा रही है

संभ्यता की सड़के
निर्जन होती जा रही है
और असभ्यता के
महामार्ग रोज
तारकोल से चमकाये
जा रहे हैं

समय की जेब 
स्वार्थियों के
कमीज पर इंसानी 
लार से चिपकाई 
जा रही है











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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

क्षणिकाएँ

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