काली रात की चादर ओढ़े आसमान के मध्य धवल चंद्रमा कुछ ऐसा ही आभास होता है जैसे दु:ख के घेरे में फंसा सुख का एक लम्हां दुख़ क्यों नहीं चला जाता है किसी निर्जन बियाबांन में सन्यासी की तरह दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता कभी कभी सुख के पैरों में अविश्वास के कण लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर दु:ख को गले लगाती हूं और तय करती हूं एक निर्जन बियाबान का सफ़र
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 17 फ़रवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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वाह!गज़ब 👌
जवाब देंहटाएंसराहनीय सृजन।
सादर
बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवाह ! उन चोटों का क्या जो दिखाई नहीं देतीं ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक
जवाब देंहटाएंगहन सटीक भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत गहन ।
जवाब देंहटाएंआज कल तो देह के हत्यारों पर भी कफन पड़ा रहता है क्यों कि नाम सामने पता होते हुए भी साबित नहीं हो पाता ।