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एक औरत की पीड़ा

एक औरत की पीड़ा

वह औरत थी उसकी
वो जब चाहता था
अपनी मर्ज़ी से
उसे अलगनी पर से उतारता
इस्तेमाल करता और
फिर वहीं रख देता 
फिर आता 
और उसे उतारकर भोगता
जितनी बार उसे उतारा जाता
टूट जाती उसके शरीर की एक नस 
नज़र आता चमड़ी से बहता हुआ कुछ लहू 
जितनी बार उसे उतारा जाता
उसके नाखूनों से 
भूमि कुरेदी जाती
कुरेदी गई धरती का प्रत्येक निशान
जन्म देता था 
कुछ जलते हुए सवालों को
उसकी आँखो का खारा पानी
सूखकर जम जाता था 
उसके रिसते घाव पे
उसके लड़ख़डा़ते पैर,
उसका रक्तरंजित मन,
उसकी लाचारी,
एवं उसकी बेबसी,
छोड़ जाती थी 
उन तमाम पुरूषों के लिये
एक अनुत्तरित सवाल
जिसका जवाब खोजना अभी भी
शेष है
क्या औरत केवल एक देह मात्र है ??

टिप्पणियाँ

  1. स्त्री की पीड़ा को और उस पीड़ा के मर्म को एक स्त्री से बेहतर और कोई नहीं समझ सकता | बहुत ही गहरी बात आपने कितनी सरलता से कह दी | सुन्दर प्रभावी पंक्तियाँ

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