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एक कविता


चालाकियां ईमानदारी और धुर्तता
संसार के रंगमंच पर
प्रमुख भूमिकाएं निभा रही हैं

इस जंग लगे समय में
ईमानदारी बेमनियों के घर
पानी भर रही है

कुछ तथाकथित नरियाँ
अपने मुलायम उंगलियों के स्पर्श से
कामयाबी के कंधे छू रही हैं

वहीं कुछ पुरुष वक्र दृष्टि से
आधी आबादी की बुद्धि की तरफ कम
देह की और अधिक आकर्षित होता जा रहा है

साधु संतों के भेष के पीछे
धर्म कम और मंक्कारी और वासनाओं का
बाजार अधिक फल-फुल रहा है

सूरज की पहली किरण के साथ
सच माथें पर काली पट्टी बांधे
झूठ के दरबार में झुक कर सलाम कर रहा है

पर परिवर्तन के नियम से कोई नहीं बचा है
ना धरा ना आसमान ना इंसान

समय का पहियां अपनी रफ्तार पकड़ लेगा
कुम्हार के चाक पर फिसलती
अनावश्यक मिट्टी की भांति
बेइमानिक का यह फलता फुलता बाजार
अस्तित्वहीन होकर नष्ट होगा
पुनरुत्थान की किरणों पर बैठ
सच दतुरी मुस्कान के साथ मुस्कुरा उठेगा


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