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प्रतिक्षाएँ



प्रतिक्षाएँ  रेत की तरह 
फिसलती हैं 
आँखों में घड़ी की 
सुई की तरह चुंभती हैं 

घने बर्फबारी के बीच 
प्रतिक्षाओं के क्षण 
दावाग्नी के कण बन
तपिश पैदा करते हैं 

प्रतिक्षाएँ हथेलियों पर 
नमक की खेतीं करकें 
यादों की फसल कांटती हैं

प्रतिक्षाएँ अनादि काल से 
ओसरे पर बैठे बूढ़ी माई जैसी बनने पर 
उस जगह से उठने का 
संकेत देती हैं 

प्रतिक्षाएँ सफल रही तो 
अर्थ है नहीं व्यर्थ हैं

टिप्पणियाँ

  1. वाह!!!!
    प्रतिक्षाएँ सफल रही तो
    अर्थ है नहीं व्यर्थ हैं
    बहुत सुंदर सार्थक सृजन।

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दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।