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प्रतिक्षाएँ



प्रतिक्षाएँ  रेत की तरह 
फिसलती हैं 
आँखों में घड़ी की 
सुई की तरह चुंभती हैं 

घने बर्फबारी के बीच 
प्रतिक्षाओं के क्षण 
दावाग्नी के कण बन
तपिश पैदा करते हैं 

प्रतिक्षाएँ हथेलियों पर 
नमक की खेतीं करकें 
यादों की फसल कांटती हैं

प्रतिक्षाएँ अनादि काल से 
ओसरे पर बैठे बूढ़ी माई जैसी बनने पर 
उस जगह से उठने का 
संकेत देती हैं 

प्रतिक्षाएँ सफल रही तो 
अर्थ है नहीं व्यर्थ हैं

टिप्पणियाँ

  1. वाह!!!!
    प्रतिक्षाएँ सफल रही तो
    अर्थ है नहीं व्यर्थ हैं
    बहुत सुंदर सार्थक सृजन।

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