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दुख जो बहा नहीं धरा पर


औरतों  के हिस्से जितना भी दु:ख आया 
बहुत कम आँखों ने धरा को सौंपा और
बहुत सा दुख आँखों के किनारें पर शहर बन बसा

बदलते काल और परिवेश में
पगडंडियों और जंगलों में खपती
इन औरतों ने अपना दुःख रखा
साथी औरतों के कानों में 
पर सांत्वना के शब्दों के एवज़ में 
सम दुख की भागीदारिनी ही मिली 

वे रात में मिला दुःख 
सुबह बुहारते हुए रख आयी 
आंँगन के कोने में 
और अधिक मात्रा में इकट्ठा होने पर 
टोकरीं में भरकर 
राख़ में तबदील कर आयी 
नजदीक के किसी खेत में 

हर परिवेश और हर स्थिति में 
इन दुखों का मापन और रंग एक सा रहा 
रेल में महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बें में 
हजारों उतरती चढ़ती आँखों में 
बसा रहा दुख का साम्राज्य 
पर कभी काजल तो कभी काले चश्मे ने
 यहाँ पहरेदारी अपने बजाई 

एंकात की तलाश करते भीड़ में नजर आए
कितने ही दुपट्टे के छोर
कुछ औरतों ने अपना दुःख 
अलमारी की उन साड़ियों की तह में
सुरक्षित रखा जिसे मायके का पानी लगा था

औरतों के हिस्से जितना भी दुःख आया 
उजाले ने कम और अंँधियारे ने अधिक जिया।





टिप्पणियाँ

  1. ओह, औरतों के दुःख की भी यह त्रासदी रही कि वो अंधेरे में ही रहे । लाजवाब सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 29 जुलाई 2022 को 'भीड़ बढ़ी मदिरालय में अब,काल आधुनिक आया है' (चर्चा अंक 4505) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी सृजन।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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