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पाषाण पर उगती औरत



बार बार  उसे 
फेंका गया है
और ये सिलसिला
गर्भ से शूरू  हुआ है

पर वो औरत है कि
हलक से
तेजाब उतारकर
पाषाण पर भी
उग आती हैं

धरकर सूरज को
अपनी पीठ पर
करती है वो
नमक पैदा
और भर देती 
है स्वाद

लेकिन किसी अपरिचित
अनजान की भी
कराह उसे
कर जाती
है विचलित।

टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना रविवार १२ जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. सटीक , कितना ही खत्म करने की कोशिश करो , उग ही आती हैं लड़कियाँ । बहुत सुंदर और गंभीर रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  3. अद्भुत ! नमक स्वाद, संवेदनशीलता और पाषाण चटका कर उगने की शिद्दत का नाम स्त्री हो सकता है । अभिनंदन ।

    जवाब देंहटाएं
  4. गज़ब की अभिव्यक्ति।
    संवेदना भी कराह उठे।

    जवाब देंहटाएं

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