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नौ दिन नौ कविताएं


दिन 1
समाज ने उसी  सीप में बसा 
अंधेरा ही बहाल करना चाहा 
पर वो हर बार मोती बन उभरती गई

उसके लिए तुम सब ने 
बिना जल के कुएं की खुदाई की 
पर वो वहां से भी सरिता बन बही

लोहे का घुंघट उसके माथे रख छोड़ा 
उसी लोहे को पिघला कर 
उसने भविष्य का रास्ता बना दिया 

उसकी बेड़ियों को तो खोल दिया
 उसके पंखों को बांध दिया
पर उसके मन की गति तुम जान न सके

हर युग में तुम ग़लत हिसाब कर गये
ये वही रमणि है
जो अपने सांस के भीतर
और एक सांस लेकर
चलने का सामर्थ्य रखती है

टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (08 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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