औरतें पुल बनना नहीं चाहती हैं
इन समाज के ठेकेदारों ने
अपने निकम्मे झोली में से
उन्हें वही शिक्षा दी सदियों से
उसके कंधें छीलते रहे
पर तुम अपने अंहकार के
चाबुक से उसे ढकते रहे
उसका एक इंची भी सरकन
तुम्हारे हत्यार बर्दाश्त न कर सके
अपने जीव्हा पर अनंत काल से पड़े
लोहे के ताले को अब वो तोड़ना चाहती हैं
सड़कों को भी अब आदत डालनी पड़ेगी
औरतों के मजबूत कदमों की
औरतें पुल बनना नहीं चाहती हैं
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 18 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। औरते पूल नही बनना चाहती है।
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