लंबे होते दिनों की दास्तां
केवल वही सुना सकता है
जो रोजगार की तलाश में
धूप को सिक्के की तरह
जेब में सहेजता हैं
उसके पीठ पर चिपके होते है
अपमान के अनकहे दंश
रात के अंधेरे में लौटने के बाद
उसके समक्ष उठने वाले
सवालों के कांटों को वो
अपने तलवे में बांध देता है
दीवार पर बैठी छिपकली से
जिद्द की भित्ति न छोड़ने का
प्रण लेकर अगले दिन
फिर से उठता है
गृहस्थी में उगी दरिद्रता
उसे घूरती हैं
प्रत्युत्तर में मौन पाकर
फिर से कमतरता की
धूल को ओढें
उसके लौटने की प्रतीक्षा करती हैं
कुछ इसी तरह से
न जाने कितने ही हाथ
खाली लौटते होंगे
लंबे बीते दिन की दास्तां
अपने चुल्हे से
कहते होंगे
रीढ़ की हड्डी में
चिपके अपमान के
शब्दों को धैर्य की अलगनी पर
रखते होंगे
कुछ इसी तरह से
जवाब देंहटाएंन जाने कितने ही हाथ
खाली लौटते होंगे
लंबे बीते दिन की दास्तां
अपने चुल्हे से
कहते होंगे
रीढ़ की हड्डी में
चिपके अपमान के
शब्दों को धैर्य की अलगनी पर
रखते होंगे..बहुत ही हृदय स्पर्शी रचना लिखी है आपने,बेरोजगारी और उसके साथ जुड़ी गरीबी जीवन भर की आपदा होतीहै ।
धन्यवाद
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
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