ईश्वर
इन दिनों बीहड़ में बैठकर
पाषाण पर लिख रहा है
दस्तावेज सृष्टि के पुनर्निर्माण का
उसके पहले वो छूना चाहता है
जंगली जानवर के हृदय में स्थित प्रेम
जिसका वह भूखा है सदियों से
उसने खाली कर दी तमाम बैठकें
जहां पाप के कीचड़ में पुण्यबीज
बोने की इच्छाएँ जमा हो गई हैं
दिमागों को अंतिम आशीर्वाद देकर
वो वहाँ से उठ चला है
नदियाँ बीहड़ की तरफ मुड़ी हैं
सुना है ईश्वर के चरणों के स्पर्श से
बंधनमुक्त सांसें भर रही हैं
वनराई के सबसे ऊँचे तरू से
बेल खींचकर ईश्वर ने
पुरूषों के कदमों का माप लिया है
कछुए के पीठ की कठोरता
उसने अपने कलम में भरकर
गढ़ ली है
स्त्री की प्रतिमा।
तमस गुणों को नवजात के
मुट्ठी में बंद करके
ईश्वर ने बांध दिया है
स्वार्थी मनुज को
दंन्तुरी मुस्कान में ।
वाह ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत अद्भुत रचना |समूची सरसता मधुरता का आगार
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
धन्यवाद सर
हटाएंसारगर्भित संदेशों को प्रतिरोपित करती गूढ़ रचना..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंअद्भुत सृजन ।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत गहरी और सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर बहुत सुन्दर
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