सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

मृत्यु

जिस क्षण गर्भ नाल को 
किया गया था अलग
मेरी नाभि से
उसी क्षण से 
स्थित है मृत्यु 
मेरी नाभि‌ में 

चूल्हे की आग 
भले ही शांत करती है
मेरी जठराग्नि 
मगर मैं खुद को 
नहीं रखती हूं अपरिचित 
श्मशान की लपटों से

कई बार छलनी से 
छान डालती हूं मैं
धरती के गर्भ में स्थित रेत
पर हासिल नहीं होती 
मृत्यु की घड़ी
मेरी निद्रित अवस्था में भी 
वो जागती है
मेरी सांसों की 
गोपनीय पहरेदार बनकर

रात के सन्नाटे में जब मैं
चढा़ती हूं
दरवाजे पर सांकल
मृत्यु मेरी पीठ से चिपक 
धिमे से मुस्कुराती है
मेरी नश्वरता के ज्ञान पर 

सोचती होगी मौत शायद 
नाल के अंतिम अवशेष 
गलने के पहले
इस देह को 
जोड़ देगी वो
वापस उसी गर्भ नाल से

टिप्पणियाँ

  1. उत्तर
    1. हमारे ब्लोग पर स्वागत है मित्र
      धन्यवाद

      हटाएं
  2. कई बार छलनी से
    छान डालती हूं मैं
    धरती के गर्भ में स्थित रेत
    पर हासिल नहीं होती
    मृत्यु की घड़ी
    मेरी निद्रित अवस्था में भी
    वो जागती है
    मेरी सांसों की
    गोपनीय पहरेदार बनकर
    वाह क्या कहने ,बहुत ही सुंदर रचना
    गहरी सोच है ,बधाई हो आपको

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत प्रभावी रचना ... मृत्यु का पल पल अहसास ... गर्भनाल का टूटना जुड़ना ... नए बिम्ब, गहरी सोच ...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

दु:ख

काली रात की चादर ओढ़े  आसमान के मध्य  धवल चंद्रमा  कुछ ऐसा ही आभास होता है  जैसे दु:ख के घेरे में फंसा  सुख का एक लम्हां  दुख़ क्यों नहीं चला जाता है  किसी निर्जन बियाबांन में  सन्यासी की तरह  दु:ख ठीक वैसे ही है जैसे  भरी दोपहर में पाठशाला में जाते समय  बिना चप्पल के तलवों में तपती रेत से चटकारें देता   कभी कभी सुख के पैरों में  अविश्वास के कण  लगे देख स्वयं मैं आगे बड़कर  दु:ख को गले लगाती हूं  और तय करती हूं एक  निर्जन बियाबान का सफ़र

जरूरी नही है

घर की नींव बचाने के लिए  स्त्री और पुरुष दोनों जरूरी है  दोनों जितने जरूरी नहीं है  उतने जरूरी भी है  पर दोनों में से एक के भी ना होने से बची रहती हैं  घर की नीव दीवारों के साथ  पर जितना जरूरी नहीं है  उतना जरुरी भी हैं  दो लोगों का एक साथ होना

उसे हर कोई नकार रहा था

इसलिए नहीं कि वह बेकार था  इसलिए कि वह  सबके राज जानता था  सबकी कलंक कथाओं का  वह एकमात्र गवाह था  किसी के भी मुखोटे से वह वक्त बेवक्त टकरा सकता था  इसीलिए वह नकारा गया  सभाओं से  मंचों से  उत्सवों से  पर रुको थोड़ा  वह व्यक्ति अपनी झोली में कुछ बुन रहा है शायद लोहे के धागे से बिखरे हुए सच को सजाने की  कवायद कर रहा है उसे देखो वह समय का सबसे ज़िंदा आदमी है।