जिस क्षण गर्भ नाल को
किया गया था अलग
मेरी नाभि से
उसी क्षण से
स्थित है मृत्यु
मेरी नाभि में
चूल्हे की आग
भले ही शांत करती है
मेरी जठराग्नि
मगर मैं खुद को
नहीं रखती हूं अपरिचित
श्मशान की लपटों से
कई बार छलनी से
छान डालती हूं मैं
धरती के गर्भ में स्थित रेत
पर हासिल नहीं होती
मृत्यु की घड़ी
मेरी निद्रित अवस्था में भी
वो जागती है
मेरी सांसों की
गोपनीय पहरेदार बनकर
रात के सन्नाटे में जब मैं
चढा़ती हूं
दरवाजे पर सांकल
मृत्यु मेरी पीठ से चिपक
धिमे से मुस्कुराती है
मेरी नश्वरता के ज्ञान पर
सोचती होगी मौत शायद
नाल के अंतिम अवशेष
गलने के पहले
इस देह को
जोड़ देगी वो
वापस उसी गर्भ नाल से
सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंहमारे ब्लोग पर स्वागत है मित्र
हटाएंधन्यवाद
कई बार छलनी से
जवाब देंहटाएंछान डालती हूं मैं
धरती के गर्भ में स्थित रेत
पर हासिल नहीं होती
मृत्यु की घड़ी
मेरी निद्रित अवस्था में भी
वो जागती है
मेरी सांसों की
गोपनीय पहरेदार बनकर
वाह क्या कहने ,बहुत ही सुंदर रचना
गहरी सोच है ,बधाई हो आपको
धन्यवाद मित्र
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी रचना ... मृत्यु का पल पल अहसास ... गर्भनाल का टूटना जुड़ना ... नए बिम्ब, गहरी सोच ...
जवाब देंहटाएंआभार सर
हटाएंसुन्दर बिम्ब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
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