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औरत

औरत 



हर औरत के भीतर 

होता है एक वृक्ष 

बडी मजबूती से

अनुभवों की जडे

पसारती है वो

भीतर से भीतर 

निरतंर


बचती है वो दीमकों से 

जो बैठा है जा उसके

स्वाभिमानी जडो पर 


औरत के अतंस में 

बहती है एक नदी

खारेपन की

ओढकर उस पर

परत फौलादी

दौडती है वो निरतंर

सघर्ष की धूप  मे

नन्ही कपोलो के लिये

लेकर नमी


अचानक होता है उसे आभास 

जड़ों से दूर होती

मिट्टी का एहसास

 यातनाओ का चक्र

हाथ से समेटते रिश्ते

होते है रक्तरंजित


पत्तों का मौन होना

शुरू होता है वृक्ष का

ठूंठ हो जाना

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